Skip to content
  • उत्तराखंड सरकार
  • Government of Uttarakhand
Rajya Kisan Ayog

Rajya Kisan Ayog

राज्य किसान आयोग, उत्तराखण्ड

  • Home
  • About Us
  • Blog
  • Contact Us
  • Ayog Meeting
  • Meeting With Farmers
  • Scheme Exclusion
  • Guidelines
  • FAQ
  • अन्य लिंक
  • Toggle search form

किसानों के हित में पास हो कम से कम एक क़ानून

Posted on August 15, 2021August 15, 2021 By User No Comments on किसानों के हित में पास हो कम से कम एक क़ानून

अभी जब तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने की मांग हो रही है तो पचास साल पुराने कम से कम एक कानून को बदलने की ज़रूरत है ताकि खेती और किसानों के साथ-साथ जन स्वास्थ्य और पर्यावरण को बचाया जा सके !

किसानों द्वारा राजधानी के घेराव और विरोध प्रदर्शन को ढाई महीने होने को हैं लेकिन अब तक तीन कृषि कानूनों को लेकर कोई सुलह नहीं हुई है. किसान इन क़ानूनों की वापसी से कम पर तैयार नहीं है जबकि सरकार इन्हें रद्द नहीं करना चाहती. हिन्दुस्तान में पिछले कई दशकों में किसानों और सरकार के बीच ऐसा टकराव नहीं दिखा जिसका स्पष्ट राजनीतिक असर दिखना तय है. इस पूरे प्रकरण में यह देखना भी ज़रूरी है कि “कृषि सुधारों” को लेकर छिड़ी बहस में अब भी पर्यावरण और पारंपरिक खेती जैसे सवाल हाशिये पर ही हैं जबकि पूरी उसका प्रभाव किसानों की अर्थव्यवस्था और पूरी इकोलॉजी से जुड़ा है.

यह समझा जा सकता है कि किसानों की फिक्र अभी सरकारी मंडियों के अस्तित्व, न्यूनतम समर्थन मूल्य और कंपनियों के दखल जैसे सवालों को लेकर है लेकिन जिस दौर में किसान कमज़ोर हुआ है उसी दौर में हम अपनी मिट्टी, पानी और हवा को भी ज़हरीला करते गये हैं. ये सवाल सीधे किसानों के हितों से जुड़े हैं जिन्हें उनके मौजूदा सरोकारों के साथ जोड़ा जाना चाहिये.

रसायनों का बढ़ती खपत

अमेरिका, जापान और चीन के बाद भारत कृषि रसायनों का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक देश है और यहां रासायनिक कीटनाशकों की खपत भी लगातार बढ़ रही है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल यानी 2019-20 में ही पूरे देश में 60,599 टन कैमिकल पेस्टिसाइड का छिड़काव हुआ. केवल पांच राज्यों महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, हरियाणा और पंजाब में ही इसकी 70% (42803 टन) खपत है. इनमें महाराष्ट्र का नंबर (12,783 टन) सबसे ऊपर है.

डाउन टु अर्थ मैग्ज़ीन में छपी रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 में ही भारत का पेस्टिसाइड मार्केट 19,700 करोड़ रुपये का था. अक्टूबर 2019 में करीब 300 पेस्टिसाइड भारत में रजिस्टर हो चुके थे और यह माना जा रहा है कि यह मार्केट 31,600 करोड़ रुपये का होगा.

हमारे देश में दर्जनों “क्लास-1” केमिकल (जिन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बेहद हानिकारक माना है) पेस्टिसाइड्स की “अप्रूव्ड” लिस्ट में सालों तक रहे और उसका कुप्रभाव किसानों के स्वास्थ्य के साथ उपभोक्ताओं की सेहत पर पड़ा है. हालांकि सरकार ने पिछले साल कई ऐसे रसायनों को बैन किया लेकिन मोनोक्रोटोफॉस ( जो क्लास 1 – बी कैटेगरी का रसायन है और यवतमाल में 2017 में किसानों की मौत के पीछे था) जैसे कुछ खतरनाक रसायन अब भी पूरी तरह प्रतिबंधित नहीं हुए हैं हालांकि सब्ज़ियों में इसके इस्तेमाल पर रोक है.

किसान मज़दूर और उपभोक्ता पर संकट

गरीब खेतीहर मज़दूर और किसान इसका प्रयोग करते हुये सबसे अधिक मरते भी हैं और बीमार भी पड़ते हैं. जानकार कहते हैं कि रसायनों की बाज़ार में मौजूदगी हो तो उसे सरकारी नियमों द्वारा नहीं रोका जा सकता क्योंकि जो किसान इन्हें खरीदते हैं उनके पास जानकारी का अभाव है और वह आर्थिक तंगी में होते हैं. किसान अक्सर दुकानदार से कर्ज़ पर पेस्टिसाइड खरीदता है इसलिये अधिकतर उसके पास – किसी विशेष फसल के लिये कौन सा पेस्टिसाइड उपयुक्त होगा यह जानते हुये भी – सही कीटनाशक चुनने का विकल्प नहीं होता. उसे वही कैमिकल छिड़कना पड़ता है जो दुकानदार उसे उधारी में देता है या डीलर उसे थमा देता है. कई बार किसी पेस्टिसाइड कंपनी का मार्केटिंग एजेंट ही इन किसानों का सलाहकार होता है.

बहुत सारे किसानों ने इस पत्रकार को बताया कि खेतों रसायनों का छिड़काव अक्सर गरीब मज़दूर के सिर मढ़ दिया जाता है जिसके पास कोई कवच (प्रोटेक्टिव गियर) नहीं होता. कई बार तो गरीब मज़दूर छिड़काव के वक्त अपनी कमीज़ भी बचाने के लिये उतार देते हैं जिससे उनके स्वास्थ्य और जीवन के खतरा कई गुना बढ़ जाता है. महत्वपूर्ण यह समझना है कि ऐसी ज़हरीली खेती से उस सब्ज़ी और अनाज को खाने वाले आम उपभोक्ता की सेहत को भी गंभीर ख़तरे हैं.

क्या है समावेशी हल

रासायनिक खेती न तो टिकाऊ (सस्टेनेबल) है और न ही इससे समावेशी विकास (इन्क्लूसिव ग्रोथ) मुमकिन है. यह मिट्टी और पानी को ज़हरीला करने के साथ जैव विविधता, पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिये बड़ा ख़तरा है. इसलिये जानकार नये (पेस्टिसाइड मैनेजमेंट बिल-2020) क़ानून के प्रस्तावित स्वरूप से बहुत खुश नहीं हैं और उसे मज़बूत करने के लिये कई सुझाव दे रहे हैं. पहला ये कि नया बिल पेस्टिसाइड के इस्तेमाल को कम करे न कि उसकी उपलब्धता पर ज़ोर दे. इसके लिये ज़रूरी है कि रेग्युलेटर किसी “क्लियरिंग हाउस” की तरह काम न करे और जल्दबाज़ी में कीटनाशकों को अनुमति न दे. इसी तरह राज्यों के रोल को बढ़ाना चाहिये और क़ानून का उल्लंघन किये जाने पर पेनल्टी कंपनी के टर्नओवर के अनुपात में होनी चाहिये. यानी जितनी बड़ी कंपनी उतनी बड़ी सज़ा.

जैविक खेती को बढ़ावा देना और किसानों और आम लोगों में जागरूकता पैदा करना इस दिशा में एक कदम है. ऑर्गेनिक खेती के लिये नीति 2005 में लाई गई लेकिन इस दिशा में तरक्की की रफ्तार काफी धीमी है. देश की सारी कृषि को देखें तो जैविक खेती का हिस्सा अभी बहुत कम है. साल 2020 में कुल उपजाये क्षेत्रफल के 3 प्रतिशत से कम रकबे पर जैविक खेती हो रही थी. सिक्किम अकेला राज्य है जिसने पूर्ण जैविक खेती का दर्जा हासिल किया है. तीन पहाड़ी राज्यों उत्तराखंड, मेघालय और मिज़ोरम में जैविक खेती 10% अधिक भूमि पर है. इसे अलावा तटीय गोवा में भी 10% से अधिक भूमि पर जैविक खेती हो रही है. हालांकि देश के कई दूसरे राज्य नीतिगत तौर पर जैविक खेती को प्रमोट कर रहे हैं लेकिन उसमें काफी कुछ किया जाना बाकी है.

किसानों द्वारा राजधानी के घेराव और विरोध प्रदर्शन को ढाई महीने होने को हैं लेकिन अब तक तीन कृषि कानूनों को लेकर कोई सुलह नहीं हुई है. किसान इन क़ानूनों की वापसी से कम पर तैयार नहीं है जबकि सरकार इन्हें रद्द नहीं करना चाहती. हिन्दुस्तान में पिछले कई दशकों में किसानों और सरकार के बीच ऐसा टकराव नहीं दिखा जिसका स्पष्ट राजनीतिक असर दिखना तय है. इस पूरे प्रकरण में यह देखना भी ज़रूरी है कि “कृषि सुधारों” को लेकर छिड़ी बहस में अब भी पर्यावरण और पारंपरिक खेती जैसे सवाल हाशिये पर ही हैं जबकि पूरी उसका प्रभाव किसानों की अर्थव्यवस्था और पूरी इकोलॉजी से जुड़ा है.

यह समझा जा सकता है कि किसानों की फिक्र अभी सरकारी मंडियों के अस्तित्व, न्यूनतम समर्थन मूल्य और कंपनियों के दखल जैसे सवालों को लेकर है लेकिन जिस दौर में किसान कमज़ोर हुआ है उसी दौर में हम अपनी मिट्टी, पानी और हवा को भी ज़हरीला करते गये हैं. ये सवाल सीधे किसानों के हितों से जुड़े हैं जिन्हें उनके मौजूदा सरोकारों के साथ जोड़ा जाना चाहिये.

रासायनिक खेती का प्रभाव

महाराष्ट्र के यवतमाल ज़िले में तीन साल पहले खेतों में कीटनाशकों का छिड़काव करते 21 किसान मारे गये और करीब 1000 किसानों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. इस मामले की पड़ताल के लिये जो विशेष जांच टीम गठित की गई उसने किसानों पर ही लापरवाही का आरोप लगाया कि उन्होंने छिड़काव के वक़्त “सुरक्षा नियमों का पालन नहीं किया.” जब मैंने इस बारे में यवतमाल ज़िले के ही एक किसान महेश पुरुषोत्तम गिरी से बात की तो उन्होंने बताया था कि न तो किसानों को रासायनिकों के इस्तेमाल के बारे में कोई ट्रेनिंग दी जाती है और न ही उन्हें यह पता होता है कि किस फसल के लिये कौन सा कीटनाशक और खाद खरीदने हैं और कितनी मात्रा में इस्तेमाल किया जाना है.

ये मामला सिर्फ यवतमाल या महाराष्ट्र तक सीमित नहीं है. देश के दूसरे हिस्सों से भी कीटनाशकों के “इस्तेमाल में लापरवाही” किसानों की मौत की ख़बर आती हैं लेकिन ये हैरान करने वाली बात है कि भारत में आज भी कीटनाशकों के इस्तेमाल से जुड़ा कानून पचास साल से अधिक पुराना है जिसे इन्सेक्टिसाइड बिल 1968 कहा जाता है. इसकी जगह नया कानून लाने की कोशिश पिछले करीब 12 साल से हो रही है. पहली बार साल 2008 में इसे संसद में पेश किया गया लेकिन पास नहीं हो सका. प्रस्तावित कानून (पेस्टिसाइड मैनेजेमेंट बिल -2020) अभी भी संसद में लंबित है. अब देखना होगा कि मौजूदा संसद सत्र में यह बिल पास हो पाता है नहीं.

जहां सरकार तीन नये कृषि कानूनों को सस्टेनेबल फार्मिंग के लिये मुफीद बताती है वहीं तर्क है कि कृषि में बड़ी-बड़ी कंपनियों का दबदबा छोटे किसानों और खेतीहर मज़दूरों के खिलाफ है. यह स्पष्ट है कि रसायनों पर अंधाधुंध निर्भरता स्वास्थ्य के साथ जैव विविधता और पर्यावरण के लिये भी घातक है. इसलिये जब तीन विवादित क़ानूनों को वापस लेने की मांग हो रही है तो कम से कम एक क़ानून (पेस्टिसाइड मैनेजेमेंट बिल -2020) ऐसा है जिसे खेती और किसानों के साथ जन स्वास्थ्य और पूरे इकोसिस्टम के हित में पास किया जाना बहुत आवश्यक है.

किसान मज़दूर और उपभोक्ता पर संकट

गरीब खेतीहर मज़दूर और किसान इसका प्रयोग करते हुये सबसे अधिक मरते भी हैं और बीमार भी पड़ते हैं. जानकार कहते हैं कि रसायनों की बाज़ार में मौजूदगी हो तो उसे सरकारी नियमों द्वारा नहीं रोका जा सकता क्योंकि जो किसान इन्हें खरीदते हैं उनके पास जानकारी का अभाव है और वह आर्थिक तंगी में होते हैं. किसान अक्सर दुकानदार से कर्ज़ पर पेस्टिसाइड खरीदता है इसलिये अधिकतर उसके पास – किसी विशेष फसल के लिये कौन सा पेस्टिसाइड उपयुक्त होगा यह जानते हुये भी – सही कीटनाशक चुनने का विकल्प नहीं होता. उसे वही कैमिकल छिड़कना पड़ता है जो दुकानदार उसे उधारी में देता है या डीलर उसे थमा देता है. कई बार किसी पेस्टिसाइड कंपनी का मार्केटिंग एजेंट ही इन किसानों का सलाहकार होता है.

बहुत सारे किसानों ने इस पत्रकार को बताया कि खेतों रसायनों का छिड़काव अक्सर गरीब मज़दूर के सिर मढ़ दिया जाता है जिसके पास कोई कवच (प्रोटेक्टिव गियर) नहीं होता. कई बार तो गरीब मज़दूर छिड़काव के वक्त अपनी कमीज़ भी बचाने के लिये उतार देते हैं जिससे उनके स्वास्थ्य और जीवन के खतरा कई गुना बढ़ जाता है. महत्वपूर्ण यह समझना है कि ऐसी ज़हरीली खेती से उस सब्ज़ी और अनाज को खाने वाले आम उपभोक्ता की सेहत को भी गंभीर ख़तरे हैं.

Post

Post navigation

Previous Post: कीटनाशक का अधिक इस्तेमाल कृषि के लिए होता है घातक !
Next Post: कृषि उड़ान योजना से सम्बंधित जानकारी

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

News & Updates

The First Meeting is being conducted on 02/08/2021.

National Website

  •  National portal of India
  •  Ministry of Comm. & IT
  •  Portal for Public Grievances
  •  Government Web Guidelines
  •  National Knowledge Network

Uttarakhand Govt. Websites

  •  Election Commission of India
  •  Chief Electoral Officer – Uttarakhand
  •  Uttarakhand Tourism Development Board
  •  Uttarakhand Government Orders
  •  Uttarakhand Transport Corporation (UTC)

Citizen Services

  •  e-District Jan Seva Kendra
  •  Tax Department
  •  e-Tendering System
  •  Court Cases
  •  MDDA

State at a Glance

  •  Governor
  •  Chief Minister
  •  Raj Bhawan
  •  uttarakhand vidhan sabha
  •  Uttarakhand State AIDS Control Society

Copyright © 2025 Rajya Kisan Ayog.

Powered by Uttarakhand Rajya Kisan Ayog

Complaint
Enquiry
Suggestion Box
Subscribe

If you opt in above we use this information send related content, discounts and other special offers.