हमारे देश में दलहनी फसलों में चने की खेती का महत्वपूर्ण स्थान है. ये क्षेत्रफल और उत्पादन दोनों में ही प्रमुख है. चने की खेती करने का सबसे बड़ा फायदा ये है कि इसकी खेती में ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है. दलहनी फसल का भाग होने की वजह से ये फसल खेत की मिट्टी में नाइट्रोजन की कमी को पूरा करती है और मिट्टी को उपजाऊ बना देती है. आपको बता दें कि उत्तर से मध्य व दक्षिण भारतीय राज्यों में चना रबी फसल के रूप में उगाया जाता है. किसान नई उन्नत तकनीक और उन्नतशील किस्मों का उपयोग कर सकते है. जिससे चने का उत्पादन बढ़ाने के साथ ही उत्पादकता के अन्तर को कम कर सकते हैं. इसके अलावा चने की उच्चतम क्वालिटी की फसल भी प्राप्त किया जा सकता है. चना रबी ऋतु की महत्वपूर्ण दलहनी फसल होती है. लेकिन इसकी खेती में कुछ बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी होता है –
चने की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
इसकी खेती बारानी दशाओं में ज्यादा की जाती है. चना शरद कालीन फसल है, इसलिए इसकी खेती कम वर्षा वाले और हलकी ठंडक वाले क्षेत्रों में की जाती है. चने की खेती का करीब 78 प्रतिशत क्षेत्र असिंचित दशा में देश के विभिन्न भागों में फैला है, तो वहीं सिंचित दशा में करीब 22 प्रतिशत खेती की जाती है. अगर फूल आने की दशा में बारिश हो गई, तो फूल झड़ने से काफी नुकसान होता है. इसके अलावा ज्यादा बारिश होन पर पौधों में अत्यधिक वानस्पतिक वृद्धि हो जाती है, जिससे पौधे गिर जाते है और फूल व फलियाँ सड़कर खराब होने लगती है. चने के अंकुरण के लिए कुछ उच्च तापक्रम की जरुरत होती है, लेकिन पौधों की उचित वृद्धि के लिए ठंडे मौसम की जरुरत पड़ती है. अगर ग्रीष्मकाल की शुरुवात में अचानक उच्च तापमान बढ़ जाए, तब भी फसल को नुकसान होता है, क्योंकि पौधों को पकने के लिए क्रमिक रूप से बढ़ते हुए उच्च तापमान की जरुरत पड़ती है. वैसे चना को बुवाई से कटाई के दौरान करीब 27 से 35 सेंटीग्रेड तापमान की आवश्यकता होती है. अगर मानसून की वर्षा प्रभावी रूप से सितम्बर के अंत में या अक्टूबर के पहले सप्ताह में हो जाती है, तो बारानी क्षेत्रों में चना की भरपूर फसल होती है.
चने की खेती के लिए उपयुक्त भूमि
इसकी खेती बलुई, दोमट और मटियार भूमि पर कर सकते है. जहां पानी न भरता हो., तो वहीं काबुली चना के लिए अपेक्षाकृत अच्छी भूमि की आवश्यकता होती है. दक्षिण भारत में मटियार दोमट और काली मिट्टी में जिसमे पानी की प्रचुर मात्रा धारण करने की क्षमता होती है, जिससे चना की खेती सफलतापूर्वक हो जाती है, ध्यान रहे कि लेकिन पानी निकासी का उचित प्रबंध उतना ही जरुरी है, जितना की सिंचाई से जल देना. बता दें कि चना की फसल हलकी ढलान वाले खेतोँ में अच्छी होती है. इसके लिए मृदा का पी.एच.मान 6 से 7.5 उपयुक्त रहता है.
खेत की तैयारी
इसकी खेती के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल या फिर डिस्क हैरो से करनी चाहिए. इसके बाद एक क्रास जुताई हैरों से करके पाटा लगाकर भूमि समतल कर देनी चाहिए. तो वहीं फसल को दीमक व कटवर्म के प्रकोप से बचाने के लिए आखिरी जुताई के वक्त करीब हैप्टाक्लोर 4 प्रतिशत या क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या फिर मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत या एन्डोसल्फॉन की 1.5 प्रतिशत चूर्ण की 25 किलोग्राम मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलानी चाहिए.
चने की खेती के लिए भूमि उपचार व बुवाई
चने की खेती करते वक्त जड़ गलन व उकटा रोग की रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम लगभग 0.75 ग्राम और थायरम एक ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज को उपचारित करें. इसके अलावा जहां दीमक का प्रकोप हो, वहां लगभग 100 किलो बीज में 800 मि.ली.लीटर क्लोरोपायरिफोस 20 ई.सी. मिलाकर बीज को उपचारित करें. बीज उपचार करने के लिए जरुरत के हिसाब से पानी गर्म करके गुड़ घोले. अब इस गुड़ पानी के घोल को ठंडा कर ले. इसके बाद कल्चर को इसमें अच्छी तरह मिलाएं. इसके बाद कल्चर मिले घोल से बीजों को उपचारित करें और छाया में सुखाने के बाद जल्दी ही बुवाई कर दे. ध्यान रहे कि सबसे पहले कवकनाशी, फिर कीटनाशी और इसके बाद राइजोबिया कल्चर से बीजोपचार करना चाहिए. जिन खेतों में विल्ट का प्रकोप ज्यादा होता हैं, वहां गहरी व देरी से बुवाई करना अच्छा होता है. साथ ही धान/ज्वार उगाए जाने वाले क्षेत्रों में दिसम्बर तक चने की बुवाई की जा सकती है.
चने की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन
चने की खेती के लिए पहली सिंचाई फूल आने से पहले और दूसरी फलियों में दाना बनते वक्त की जानी चाहिए. मतलब बुवाई के करीब 45 या 60 दिन बाद होनी चाहिए. अगर जाड़े की बारिश हो जाए तो दूसरी सिंचाई नहीं करनी चाहिए. ध्यान रहे कि जब फसल में फूल आ रहे हो उस वक्त सिंचाई न करें. इससे फसल नुकसान हो सकती है. अगर आप ड्रिप स्प्रिंकलर विधि से सिंचाई करते है तो समय और पानी दोनों की बचत होती हैं. साथ ही, फसल पर कुप्रभाव नहीं पड़ता हैं.
चने की खेती के लिए भूमि उपचार व बुवाई
चने की खेती करते वक्त जड़ गलन व उकटा रोग की रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम लगभग 0.75 ग्राम और थायरम एक ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज को उपचारित करें. इसके अलावा जहां दीमक का प्रकोप हो, वहां लगभग 100 किलो बीज में 800 मि.ली.लीटर क्लोरोपायरिफोस 20 ई.सी. मिलाकर बीज को उपचारित करें. बीज उपचार करने के लिए जरुरत के हिसाब से पानी गर्म करके गुड़ घोले. अब इस गुड़ पानी के घोल को ठंडा कर ले. इसके बाद कल्चर को इसमें अच्छी तरह मिलाएं. इसके बाद कल्चर मिले घोल से बीजों को उपचारित करें और छाया में सुखाने के बाद जल्दी ही बुवाई कर दे. ध्यान रहे कि सबसे पहले कवकनाशी, फिर कीटनाशी और इसके बाद राइजोबिया कल्चर से बीजोपचार करना चाहिए. जिन खेतों में विल्ट का प्रकोप ज्यादा होता हैं, वहां गहरी व देरी से बुवाई करना अच्छा होता है. साथ ही धान/ज्वार उगाए जाने वाले क्षेत्रों में दिसम्बर तक चने की बुवाई की जा सकती है.
चने की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन
चने की खेती के लिए पहली सिंचाई फूल आने से पहले और दूसरी फलियों में दाना बनते वक्त की जानी चाहिए. मतलब बुवाई के करीब 45 या 60 दिन बाद होनी चाहिए. अगर जाड़े की बारिश हो जाए तो दूसरी सिंचाई नहीं करनी चाहिए. ध्यान रहे कि जब फसल में फूल आ रहे हो उस वक्त सिंचाई न करें. इससे फसल नुकसान हो सकती है. अगर आप ड्रिप स्प्रिंकलर विधि से सिंचाई करते है तो समय और पानी दोनों की बचत होती हैं. साथ ही, फसल पर कुप्रभाव नहीं पड़ता हैं.
