बहुउद्देशीय फसल होने के चलते देश में आजकल अलसी की मांग काफी बढ़ी है | अलसी बहुमूल्य तिलहन फसल है जिसका उपयोग कई उद्योगों के साथ दवाइयां बनाने में भी किया जाता है। अलसी के प्रत्येक भाग का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न रूपों में उपयोग किया जा सकता है । अलसी के बीज से निकलने वाला तेल प्रायः खाने के रूप में उपयोग में नही लिया जाता है बल्कि दवाइयाँ बनाने में होता है। इसके तेल का पेंट्स, वार्निश व स्नेहक बनाने के साथ पैड इंक तथा प्रेस प्रिटिंग हेतु स्याही तैयार करने में उपयोग किया जाता है। इसका बीज फोड़ों फुन्सी में पुल्टिस बनाकर प्रयोग किया जाता है।
अलसी के तने से उच्च गुणवत्ता वाला रेशा प्राप्त किया जाता है व रेशे से लिनेन तैयार किया जाता है। अलसी की खली दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के रूप में उपयोग की जाती है तथा खली में विभिन्न पौध पौषक तत्वों की उचित मात्रा होने के कारण इसका उपयोग खाद के रूप में किया जाता है। अलसी के पौधे का काष्ठीय भाग तथा छोटे-छोटे रेशों का प्रयोग कागज बनाने हेतु किया जाता है। अलसी के अधिक उत्पादन के लिए किसानों को खेती करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए:-
अलसी की खेती के लिए भूमि का चुनाव एवं तैयारी
फसल के लिये काली भारी एवं दोमट (मटियार) मिट्टियाँ उपयुक्त होती हैं। अधिक उपजाऊ मृदाओं की अपेक्षा मध्यम उपजाऊ मृदायें अच्छी समझी जाती हैं। भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए । आधुनिक संकल्पना के अनुसार उचित जल एवं उर्वरक व्यवस्था करने पर किसी भी प्रकार की मिट्टी में अलसी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अच्छा अंकुरण प्राप्त करने के लिये खेत भुरभुरा एवं खरपतवार रहित होना चाहिये । अतः खेत को 2-3 बार हैरो चलाकर पाटा लगाना आवश्यक है जिससे नमी संरक्षित रह सके । अलसी का दाना छोटा एवं महीन होता है, अतः अच्छे अंकुरण हेतु खेत का भुरभुरा होना अतिआवश्यक है ।
भूमि उपचार :
भूमि जनित एवं बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु बयोपेस्टीसाइड (जैव कवक नाशी) ट्राइकोडरमा विरिडी 1 प्रतिशत डब्लू.पी. अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम 2 प्रतिशत डब्लू.पी. 2.5 किग्रा. प्रति हे. 60-75 किग्रा. सड़ी हुए गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छीटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुआई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से अलसी के बीज / भूमि जनित रोगों के प्रबन्धन में सहायक होता है
अलसी तिलहन फसलों में दूसरी महत्वपूर्ण फसल है। अलसी का सम्पूर्ण पौधा आर्थिक महत्व का होता है। इसके तने से लिनेन नामक बहुमूल्य रेषा प्राप्त होता है और बीज का उपयोग तेल प्राप्त करने के साथ-साथ औषधीय रूप में किया जाता है। आयुर्वेद में अलसी को दैनिक भोजन माना जाता है। अलसी के कुल उत्पादन का लगभग 20 प्रतिषत खाद्य तेल के रूप में तथा शेष 80 प्रतिषत उद्योगों में प्रयोग होता है। अलसी का बीज ओमेगा-3 वसीय अम्ल 50 से 60 प्रतिषत पाया जाता है। साथ ही इसमें अल्फा लिनोलिनिक अम्ल, लिग्नेज, प्रोटीन व खाद्य रेषा आदि। ओमेगा-3 वसीय अम्ल मधुमेह गठिया, मोटापा, उच्च रक्तचाप, कैंसर, मानसिक तनाव (डिप्रेषन), दमा आदि बीमारियों में लाभदायक होता है।
अलसी तिलहन फसलों में दूसरी महत्वपूर्ण फसल है। विश्व में अलसी के उत्पादन के दृष्टिकोण से हमारे देश का तीसरा स्थान है जबकि प्रथम स्थान पर कनाडा व दूसरे स्थान पर चीन है। वर्तमान समय में लगभग 448.7 हजार हैक्टेयर भूमि पर इसकी खेती की जा रही है एवं कुल उत्पादन 168.7 हजार टन व औसतन पैदावार 378 कि. ग्रा. प्रति हैक्टेयर है। भारत मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ, बिहार, राजस्थान, ओडिशा, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक आदि प्रदेशों में इसकी खेती की जाती है। अलसी के कुल उत्पादन का लगभग 20 प्रतिशत खाद्य तेल के रूप में तथा शेष 80 प्रतिशत तेल औद्योगिक प्रयोग जैसे सूखा तेल, पेन्ट बनाने में, वारनिश, लेमिनेशन, तेल कपड़े, चमडे, छपाई की स्याही, चिपकाने, टैपिलोन साबुन आदि में किया जाता है। इसलिए बीज उत्पादन व रेशा व तेल पर कीटों के पौधे के भाग पर निर्भर करता है।
भूमि और जलवायु :
अलसी की फसल के लिए काली भारी एवं दोमट मटियार मिट्टी उपयुक्त होती है। अधिक उपजाऊ मृदाए अच्छी समझी जाती हैं। भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए। अलसी की फसल को ठंडी व शुश्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। अलसी के उचित अंकुरण हेतु 25 से 30 सेल्सियस तापमान तथा बीज बनाते समय तापमान 15 से 20 सेल्सियस होना चाहिए। परिपक्वन अवस्था पर उच्च तापमान, कम नमी तथा शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है।
खेत की तैयारी :
अलसी का अच्छा अंकुरण प्राप्त करने के लिए खेत भुरभुरा एवं खरपतवार रहित होना चाहिए। अतः खेत को 2 से 3 बार हैरो चलाकर पाटा लगाना आवश्यक है जिससे नमी संरक्षित रह सके। अलसी का दाना छोटा एवं महीन होता है। अतः अच्छे अंकुरण हेतु खेत का भुरभरा होना अति आवश्यक है।
बुवाई का समय :
असिंचित क्षेत्रों में अक्टूबर के प्रथम पखवाडे़ तथा सिंचित क्षेत्रों में नवम्बर के प्रथम पखवाडे़ में बुवाई करनी चाहिए उतेरा खेती के लिए धान कटने के 7 दिन पूर्व बुवाई की जानी चाहिए। जल्दी बोनी करने पर अलसी की फसल को फल मक्खी एवं पाउडरी मिल्ड्यू आदि से बचाया जा सकता है।
बीज एवं बीजोपचार :
अलसी की बुवाई 20 से 25 किग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से करनी चाहिए। कतार से कतार के बीच की दूरी 30 सेंमी तथा पौधे की दूरी 5 से 7 सेंमी रखनी चाहिए। बीज को भूमि में 2 से 3 सेंमी की गहराई पर बोना चाहिए। बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्रा. मात्रा प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए अथवा ट्राइकोडर्मा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिए।
उर्वरकों की मात्रा :
असिंचित क्षेत्र के लिए अच्छी उपज प्राप्ति हेतु नाइट्रोजन 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस 40 कि.ग्रा. एवं 40 कि.ग्रा. पोटाश की दर से तथा सिंचित क्षेत्रों में 100 किग्रा. नाइट्रोजन व 75 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें। असिंचित दशा में नाइट्रोजन व फॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा सिंचित दशा में नाइट्रोजन की आधी मात्रा व फॉस्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय चोगे द्वारा 2-3 से.मी. नीचे प्रयोग करें सिंचित दशा में नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा टॉप ड्रेसिंग के रुप में प्रथम सिंचाई के बाद करें। फॉस्फोरस के लिए सुपर फॉस्फेट का प्रयोग अधिक लाभप्रद है। अलसी में भी एजोटोबेक्टर एजोसपाईरिलम और फॉस्फोरस घोलकर जीवाणु आदि जैव उर्वरक उपयोग किए जा सकते हैं। बीज उपचार हेतु 10 ग्राम जैव उर्वरक प्रति किग्रा बीज की दर से अथवा मृदा उपचार हेतु 5 किग्रा हैक्टेयर जैव उर्वरकों की मात्रा को 50 किग्रा भुरभुरे गोबर की खाद के साथ मिलाकर अंतिम जुताई के पहले खेत में बराबर बिखेर देना चाहिए।
खरपतवार प्रबंधन :
खरपतवार प्रबंधन के लिए बुवाई के 20 से 25 दिन पश्चात् पहली निराई-गुड़ाई एवं 40 से 45 दिन पश्चात् दूसरी निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। अलसी की फसल में रासायनिक विधि से खरपतवार प्रबंधन हेतु एलाक्लोर एक कि.ग्रा संक्रिया तत्व को बुवाई के पश्चात् एवं अंकुरण पूर्व 500 से 600 लिटर पानी में मिलाकर खेत में छिड़काव करें।
जल प्रबंधन :
अलसी के अच्छे उत्पादन के लिए विभिन्न क्रांतिक अवस्थाओं पर 2 से 3 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है प्रथम सिंचाई 4 से 6 पत्ती निकलने पर द्वितीय सिंचाई शाखा फूटते समय एवं तृतीय सिंचाई फूल आते समय चैथी सिंचाई दाने बनते समय करना चाहिए। यदि सिंचाई उपलब्ध हो तो प्रथम सिंचाई बुवाई के एक माह बाद एवं द्वितीय सिंचाई फूल आने से पहले करनी चाहिए। सिंचाई के साथ-साथ प्रक्षेत्र में जल निकास का भी उचित प्रबंध होना चाहिए।
अलसी के प्रमुख कीट :
कर्तन कीट (एग्राटिस एप्सिलान)
पहचान व जीवन–चक्र
कर्तन कीट का वयस्क व सूंडी ग्रीष्म के अन्त में मादा संभोग के बाद अण्ड़े देते हैं। मादा हल्की भूरी दोमट भूमि में अण्ड़े देना पसंद करती है। मादा एकल या गुच्छे में ठीक जमीन के नीचे सतह या पौषक पौधे के पत्ती के निचले भाग पर देती है। भारत के कुछ भागों में मादा गे्रजी कर्तन वयस्क अण्डे देना पसंद करती है। कर्तन कीट अलसी के पौधे को पूर्णतया या पौधे के जमीन के भाग से काट देता है। इसकी सूंड़ी दिन के समय जमीन में रहती है और रात के समय निकलकर खाती है। जमीन की सतह से पूर्ण विकसित सूंड़ी लगभग 3 से 4 सप्ताह तक खाती है व क्षतिग्रस्त पौधा पूर्णतया नष्ट हो जाता है या कमजोर होने के कारण हवा से या बीमारी से ग्रसित हो जाता है।
प्रबन्धन :
– खेतों के पास प्रकाश प्रपंच 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति है. की दर से लगाकर प्रौढ़ कीटों को आकर्षित करके नष्ट किया जा सकता है जिसकी वजह से इसकी संख्या को कम किया जा सकता है।
– खेतों के बीच-बीच में घास फूस के छोटे-छोटे ढेर शाम के समय लगा देने चाहिए। रात्रि में जब सूंडियां खाने को निकलती है। तो बाद में इन्हीं में छिपेगी जिन्हें घास हटाने पर आसानी से नष्ट किया जा सकता है।
– प्रकोप बढ़ने पर क्लोरोपायरी फॉस 20 ई. सी. 1 लिटर प्रति है. या नीम का तेल 3 प्रतिशत की दर से छिड़काव करें।
– फसल की बुवाई से पूर्व फोरेट (थीमेट) 10 जी. ग्रेन्यूल्स की 20-25 किग्रा. मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें।
अलसी की कली या गालमिज मक्खी
(डाईनूरिया लिनी बारनस)
कली वयस्क पहचान व जीवन–चक्र
अलसी की कली वयस्क छोटा (1-1.5 मिमी. लम्बा) लम्बा शरीर मक्खी नारंगी व लम्बे पैर और पंख के पीछे वाले भाग पर बाल पाए जाते हैं। मादा दिन के समय एकल या गुच्छ़ों में या 3-5 तक कली व फूल के बाह्य दल पर अंडे देती हैं। अंड़ों से एक या दो दिन में फूट कर मैगेट निकलते हैं मैगेट कली में छेद करके अन्दर प्रवेश कर जाते है, और अन्दर से खाते रहते हैं। कली में 3-4 मैगेट विकसित हो जाते हैं। कभी-कभी 10 मैगेट भी एक कली फसल को मैगेट द्वारा कली को खाने से फूल को बीज बनने से रोकते हैं।
प्रबन्धन :
– मैगेट परजीवी चालसिड ततैया सिसटैसिस डैसूनेरी मैगेट की मात्रा को कम करने में सहायक होगा।
– आवश्यकतानुसार कीटनाशी रसायन साइपरमेथ्रिन 25 प्रतिशत की 350 मि.लि. मात्रा या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस. एल. की 1 मि.लि. मात्रा या डाइमेथोएट 30 ई. सी. या मेटासिसटाक्स 25 इ. सी. 1.25-2.0 मि.लि. प्रति लिटर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
– कार्बारिल 10 प्रतिशत डी0 पी0 25 किलो0 प्रति हैक्टेयर की दर से बुरकाव करें।
लीफ माइनर या पर्णसूरंगक कीट
(फाइटोमाइजा होर्टीकोला)
पहचान एवं जीवन चक्र:
लीफ माइनर अलसी का बहुभक्षी कीट है। भारत में वयस्क मक्खी चमकीले गहरे रंग की होती है। लीफ माइनर अलसी की फसल की 25 प्रतिशत पत्तियों को क्षति पहुंचाता है। इसका प्रकोप अधिकतर फरवरी व मार्च में होता है। लीफ माइनर के मैगेट पत्ती के निचले व ऊपर के बीच को खाती है और पत्ती की शिराओं पर सुरंग बना लेते है।
प्रबंधन :
– प्रकोप होने पर 5 प्रतिशत एन.एस.के.ई. का छिड़काव करें।
– अधिक प्रकोप होने पर थायोमीथोक्सोम 25 डब्लू. पी. 100 जी. या क्लोथिनीडीन 50 प्रतिशत डब्लू. डी.जी. 20-24 ग्राम. 500 लिटर पानी में या डाईमैथोएट 30 ई. सी. का 1.0-1.5 लिटर या मेटासिसटाक्स का 1.5 -2.0 लिटर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
फल भेदक कीट (हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा)
पहचान एवं जीवन चक्रः
इस कीट का वयस्क मध्यम आकार का पीले-भूरे रंग का होता है। इस कीट की मादा अलसी की पत्तियों, वाहयदल पुंज की निचली सतह पर हल्के पीले रंग के खरबूजे की तरह धारियों वाले एक-एक करके अण्डे देती हैं। एक मादा अपने जीवन काल में लगभग 500-1000 तक अण्डे देती हैं। ये अण्डे 3 से 10 दिनों के अन्दर फूट जाते है और इनसे चमकीले हरे रंग की सूड़िया निकलती हैं। इसकी सूंडी चढ़ने वाली सूंडी से अलग होती है नवजात सूंडी फूल, कली और एक समय के लिए कैप्सूल में घुस जाती है और कैप्सूल का अन्दर का न्यूट्रिएंट खा जाती है। सूंड़ी कैप्सूल से बाहर निकलकर पत्ती खाती है और फिर दूसरे कैप्सूल में घुस जाती है।
प्रबन्धन:
– खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति है. की दर से लगाए।
– खेत में परजीवी पक्षियों के बैठने हेतु 10 ठिकाने प्रति है. के अनुसार लगाए।
– सूंड़ी की प्रथमावस्था दिखाई देते ही 250 एल. ई. का एच. ए. एन. पी. वी. को एक किलोग्राम गुड़ तथा 0.1 प्रतिशत टीपोल के घोल का प्रति है. की दर से 10-12 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें।
– इसके अतिरिक्त 1 किग्रा. बी. टी. का प्रति है. प्रयोग करें।
– तदोपरान्त 5 प्रतिशत एन.स.के.ई. का छिड़काव करें।
– प्रकोप बढ़ने पर क्विनोलफास 25 ई.सी. या क्लोरपायरी फॉस 20 ई. सी. का 2 मिमी. प्रति लि. या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. की 1 मिमी. प्रति लि. की दर से छिड़काव करें।
– स्पाइनोसैड 45 एस.सी. व थायोमेक्जाम 70 डब्ल्यू एस. सी. की 1 मिमी. प्रति लि. का प्रयोग करें।
