सोयाबीन विश्व की तिलहनी एवं ग्रंथिकुल फसल है यह प्रोटीन का महत्वपूर्ण स्त्रोत है इसमें प्रोटीन की मात्रा लगभग 40 प्रतिशत होती हैं वहीँ वसा 20 प्रतिशत तक होता है | भारत देश में सोयाबीन खेती का महत्वपूर्ण योगदान है | भ्बरत में लगभग 4 दशक पूर्व सोयाबीन की व्यावसायिक खेती प्रारंभ हुई थी इसके बाबजूद सोयाबीन ने देश की मुख्य तिलहन फसलों में अपना स्थान हासिल कर लिया | सोयाबीन की खेती मुख्यतः मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, कर्नाटक राजस्थान एवं आंध्रप्रदेश में की जाती है |
सोयाबीन हेतु खेत की तैयारी: –
मिट्टी परीक्षण संतुलित उर्वरक प्रबंधन एवं मृदा स्वास्थ्य हेतु मिट्टी का मुख्य तत्व जैसे नत्रजन, फासफोरस, पोटाश, द्वितियक पोषक तत्व जैसे सल्फर, केल्शियम, मेगनेशियम एवं सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जस्ता, तांबा, लोहा, मेगनीज़, मोलिब्डिनम, बोराॅन साथ ही पी.एच., ई.सी. एवं कार्बनिक द्रव्य का परीक्षण करायें ।
ग्रीष्मकालीन जुताई :
खाली खेतों की ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से माह मार्च से 15 मई तक 9 से 12 इंच गहराई तक करें ।
- मृदा के भौतिक गुणों में सुधार होगा, जैसे मृदा में वातायन, पानी सोखने एवं जल धारण शक्ति, मृदा भुरभुरापन, भूमि संरचना इत्यादि ।
- खरपतवार नियंत्रण में सहायता प्राप्त होगी ।
- कीड़े मकोड़े तथा बिमारियों के नियंत्रण में सहायक होता है ।
- उर्वरक प्रबंधन एवं जिवांश पदार्थ के विघटन में लाभकारी सिद्ध होता है |
सोयाबीन की उन्नत किस्में
जे. एस-335 :-
यह सोयाबीन की उन्नत तकनीक है . इस प्रजाति की बीज 95 से 100 दिन में हो जाता है | इस बीज की खासियत यह है की वजन में अच्छी है 10 से 13 दाने का वजन 100 ग्राम होता है | इस बीज की उत्पादन क्षमता 25 – 30 किवंटल / हैक्टेयर होता है | इसका रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक है अन्य बीज से ज्यादा है |
जे.एस. 93-05 :-
इस प्रजाति की बीज का उपज क्षमता 20 से 25 किवंटल प्रति हैक्टेयर है | यह 90 से 95 दिनों में तैयार हो जाता है | इस प्रजाति की बीज का भी वजन 13 बीज का 100 ग्राम होता है | इसकी विशेषताएं अर्द्ध-परिमित वृद्धि किस्म, बैंगनी फूल. कम चटकने वाली फलियां होती है |
एन.आर.सी-86 :-
इसकी विशेषताएं: सफेद फूल, भूरा नाभी एवं रोये, परिमित वृद्धि, गर्डल बीटल और तना-मक्खी के लिये प्रतिरोधी, चारकोल राॅट एवं फली झुलसा के लिये मध्यम प्रतिरोधी है | प्रजाति की बीज का उपज क्षमता 20 से 25 किवंटल प्रति हैक्टेयर है | यह 90 से 95 दिनों में तैयार हो जाता है | इस प्रजाति की बीज का भी वजन 13 बीज का 100 ग्राम होता है |
एन.आर.सी-12 :-
इसप्रजाति की बीज का उपज क्षमता 20 से 25 किवंटल प्रति हैक्टेयर है | यह 90 से 95 दिनों में तैयार हो जाता है | इस प्रजाति की बीज का भी वजन 13 बीज का 100 ग्राम होता है | इसकी विशेषताएं: परिमित वृद्धि, बैंगनी फूल, गर्डल बीटल और तना-मक्खी के लिए सहनषील, पीला मोजैक प्रतिरोधी होता है |
एन.आर.सी-7 :-
इस प्रजाति की बीज का उपज क्षमता 20 से 25 किवंटल प्रति हैक्टेयर है | यह 90 से 95 दिनों में तैयार हो जाता है | इस प्रजाति की बीज का भी वजन 13 बीज का 100 ग्राम होता है | इसकी विषेषताएं: परिमित वृद्धि, फलियां चटकने के लिए प्रतिरोधी, बैंगनी फूल, गर्डल बीडल और तना-मक्खी के लिए सहनशील होती है |
जे. एस. 95-60 :-
इस प्रजाति की बीज का उपज क्षमता 20 से 25 किवंटल प्रति हैक्टेयर है | यह 80 से 85 दिनों में तैयार हो जाता है | इस प्रजाति की बीज का भी वजन 13 बीज का 100 ग्राम होता है | इसकी विषेषताएं: अर्द्ध-बौनी किस्म, ऊचाई 45-50 सेमी, बैंगनी फूल, फलियां नहीं चटकती है |
जे.एस. 20-29 :-
इस प्रजाति की बीज का उपज क्षमता 20 से 25 किवंटल प्रति हैक्टेयर है | यह 90 से 95 दिनों में तैयार हो जाता है | इस प्रजाति की बीज का भी वजन 13 बीज का 100 ग्राम होता है |इसकी विशेषताएं: बैंगनी फूल, पीला दाना, पीला विषाणु रोग, चारकोल राट, बेक्टेरिययल पश्चूल एवं कीट प्रतिरोधी बेक्टेरिययल पश्चूल एवं कीट प्रतिरोधी विशेषताएं: बैंगनी फूल, पीला दाना, पीला विषाणु रोग, चारकोल राट, बेक्टेरिययल पश्चूल एवं कीट प्रतिरोधी बेक्टेरिययल पश्चूल एवं कीट प्रतिरोधी है |
अंकुरण क्षमता:
बुवाई के पूर्व बीज की अंकुरण क्षमता (70%) अवश्य ज्ञात करें ।
100 दानें तीन जगह लेकर गीली बोरी में रखकर औसत अंकुरण क्षमता का आकंलन करें ।
बीजोपचार:-
बीज को थायरम $ कार्बेन्डाजिम (2:1) के 3 ग्राम मिश्रण, अथवा थयरम $ कार्बोक्सीन 2.5 ग्राम अथवा थायोमिथाक्सेम 78 ws 3 ग्राम अथवा ट्राईकोडर्मा विर्डी 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें ।
जैव उर्वरक:-
- बीज को राइजोबियम कल्चर (बे्रडी जापोनिकम) 5 ग्राम एवं पी.एस.बी.(स्फुर घोलक) 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बोने से कुछ घंटे पूर्व टीकाकरण करें ।
2. पी.एस.बी. 2.50 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से खेत में मिलाने से स्फुर को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर पौधों को उपलब्ध कराने में सहायक होता है ।
समय पर बुआई:-
जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह के मध्य 4-5 इंच वर्षा होने पर बुवाई करें ।
कतारों में बोनी:-
- कम फैलने वाली प्रजातियों जैसे जे.एस. 93-05, जे.एस. 95-60 इत्यादि के लिये बुवाई के समय कतार से कतार की दूरी 40 से.मी. रखे ।
- ज्यादा फैलनेवाली किस्में जैसे जे.एस. 335, एन.आर.सी. 7, जे.एस. 97-52 के लिए 45 से.मी. की दूरी रखें ।
बीज की मात्रा:-
- बुवाई हेतु दानों के आकार के अनुसार बीज की मात्रा का निर्धारण करें । पौध संख्या 4-4.5 लाख/हे. रखे ।
- छोटे दाने वाली प्रजातियों के लिये बीज की मात्रा 60-70 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें ।
- बड़े दाने वाली प्रजातियों के लिये बीज की मात्रा 80-90 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयर की दर से निर्धारित करें ।
- गहरी काली भूमि तथा अधिक वर्षा क्षेत्रों में रिजर सीडर प्लांटर द्वारा कूड (नाली) मेड़ पद्धति या रेज्ड बेड प्लांटर या ब्राड बेड फरो पद्धति से बुआई करें ।
- बीज के साथ किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरको का प्रयोग न करें।
संतुलित उर्वरक प्रबंधन:-
- उवर्रक प्रबंधन के अंतर्गत रसायनिक उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना सर्वथा उचित होता है ।
- रसायनिक उर्वरकों के साथ नाडेप खाद, गोबर खाद, कार्बनिक संसाधनों का अधिकतम (10-20 टन/हे.) या वर्मी कम्पोस्ट 5 टन/हे. उपयोग करें ।
- संतुलित रसायनिक उर्वरक प्रबंधन के अन्र्तगत संतुलित मात्रा 20:60 – 80:40:20 (नत्रजन: स्फुर: पोटाश: सल्फर) का उपयोग करें ।
- संस्तुत मात्रा खेत में अंतिम जुताई से पूर्व डालकर भलीभाँति मिट्टी में मिला देंवे ।
- नत्रजन की पूर्ति हेतु आवश्यकता अनुरूप 50 किलोग्राम यूरिया का उपयोग अंकुरण पश्चात 7 दिन से डोरे के साथ डाले ।
जस्ता एवं गंधक की पूर्ति:-
- अनुशंसित खाद एवं उर्वरक की मात्रा के साथ जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिट्टी परीक्षण के अनुसार डालें ।
2. गंधक युक्त उर्वरक (सिंगल सुपर फास्फेट) का उपयोग अधिक लाभकारी होगा । सुपर फास्फेट उपयोग न कर पाने की दशा में जिप्सम का उपयोग 2.50 क्वि. प्रति हैक्टर की दर से करना लाभकारी है । इसके साथ ही अन्य गंधक युक्त उर्वरकों का उपयोग किया जा सकता है ।
खाद या उर्वरक का प्रबंधन कैसे करें ?
- उवर्रक प्रबंधन के अंतर्गत रसायनिक उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना सर्वथा उचित होता है ।
- रसायनिक उर्वरकों के साथ नाडेप खाद, गोबर खाद, कार्बनिक संसाधनों का अधिकतम (10-20 टन/हे.) या वर्मी कम्पोस्ट 5 टन/हे. उपयोग करें ।
- संतुलित रसायनिक उर्वरक प्रबंधन के अन्र्तगत संतुलित मात्रा 20:60 – 80:40:20 (नत्रजन: स्फुर: पोटाश: सल्फर) का उपयोग करें ।
- संस्तुत मात्रा खेत में अंतिम जुताई से पूर्व डालकर भलीभाँति मिट्टी में मिला देंवे ।
- नत्रजन की पूर्ति हेतु आवश्यकता अनुरूप 50 किलोग्राम यूरिया का उपयोग अंकुरण पश्चात 7 दिन से डोरे के साथ डाले ।
अंर्तवर्ती खेती :-
अंर्तवर्ती फसलें जैसे सोयाबीन $ अरहर (4:2), सोयाबीन $ मक्का (4:2) $ सोयाबीन $ ज्वार (4:2) $ सोयाबीन $ कपास (4:1) को जलवायु के क्षेत्र के हिसाब से अपनायें ।
फसल चक्र :-
निरंतर सोयाबीन चना के स्थान पर सोयाबीन – गेहूं, सोयाबीन – सरसों फसल चक्र को अपनांए ।
सोयाबीन में खरपतवार नींदा प्रबंधन :-
खरपतवारों को सोयाबीन फसल में निम्न विधियों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है:
1. कर्षण विधि
2. यांत्रिकी विधि
3. रसायनिक विधि
यांत्रिक विधि :-
फसल को 30-45 दिन की अवस्था तक नींदा रहित रखें । इस हेतु फसल उगने के पश्चात डोरे/कुलपे चलावे ।
रासायनिक विधि से नियंत्रण
- बोवनी के पूर्व उपयोगी (पीपीआई) :- सोयाबीन की फसल की बुवाई से पहले खरपतवार के नियंत्रण के लिए फ्लुक्लोरेलीन तथा ट्राईफ्लूरेलीन का उपयोग कर सकते है | इसकी 2.22 ली. प्रति हैक्टेयर की दर से उपयोग कर सकते हैं |
- बोवनी के तुरन्त बाद(पीआई) :- बुवाई के बाद खरपतवार की नियंत्रण के लिए किसान मेटालोक्लोर (2.00 ली./हैक्टेयर), क्लोमाझोन (2.00 ली./हैक्टेयर), पेण्डीमिथालीन (3.25 ली./हैक्टेयर) तथा डाइक्लोसुलम (26 ग्राम /हैक्टेयर) का उपयोग कर सकते हैं |
- 15 से 20 दिन की फसल में में खरपतवार नियंत्रण के लिए इमेजाथायपर (1लि./हैक्टेयर), क्विजालोफाप इथइल (1 लि./ हैक्टेयर), फेनाक्सीफाप-पी-इथइल (0.75 ली./हैक्टेयर) तथा हेलाक्सीफाप (135 मिली. / हैक्टेयर) का उपयोग करें |
जल संरक्षण उपाय :-
साधारण सीड ड्रील से बुवाई के समय 5-6 कतारों के बाद फरो ओपनर के माध्यम से एक कूंड बनाए । खाली कूंड को डोरा चलाते वक्त गहरा कर दे । इससे अधिक वर्षा की स्थिति में जल निकासी एवं अल्प वर्षा की स्थिति में जल संरक्षण होगा । सीड ड्रिल के साथ पावडी का उपयोग करें, जिससे जल संरक्षण एवं उचित पौध संख्या प्राप्त की जा सकती है ।
अंर्तवर्ती खेती :-
अंर्तवर्ती फसलें जैसे सोयाबीन $ अरहर (4:2), सोयाबीन $ मक्का (4:2) $ सोयाबीन $ ज्वार (4:2) $ सोयाबीन $ कपास (4:1) को जलवायु के क्षेत्र के हिसाब से अपनायें ।
फसल चक्र :-
निरंतर सोयाबीन चना के स्थान पर सोयाबीन – गेहूं, सोयाबीन – सरसों फसल चक्र को अपनांए ।
नींदा प्रबंधन :-
खरपतवारों को सोयाबीन फसल में निम्न विधियों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है:
1. कर्षण विधि
2. यांत्रिकी विधि
3. रसायनिक विधि
यांत्रिक विधि :-
फसल को 30-45 दिन की अवस्था तक नींदा रहित रखें । इस हेतु फसल उगने के पश्चात डोरे/कुलपे चलावे ।
फसल सुरक्षा: सोयाबीन में कीट एवं रोग
एकीकृत कीट नियंत्रण के उपाय अपनाएं जैसे नीम तेल व लाईट ट्रेप्स का उपयोग तथा प्रभावित एवं क्षतिग्रस्त पौधों को निकालकर खेत के बाहर मिट्टी में दबा दें । कीटनाशकों के छिड़काव हेतु 7-8 टंकी (15 लीटर प्रति टंकी) प्रति बीघा या 500 ली./हे. के मान से पानी का उपयोग करना अतिआवश्यक है ।
अ. जैविक नियंत्रण
- खेत में ‘ज्’ आकार की खूटी 20-25 /हे. लगाएं ।
- फेरोमोन ट्रेप 10-12/हे का उपयोग करें ।
- लाईट ट्रेप का उपयोग कीटों के प्रकोप की जानकारी के लिए लगाएं।
