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कुसुम की खेती किस तरह की जाती है

Posted on December 11, 2020 By User No Comments on कुसुम की खेती किस तरह की जाती है


भूमि का चुनाव एवं तैयारी
अच्छे उत्पादन के लिये कुसुम फसल के लिये मध्यम काली भूमि से लेकर भारी काली भूमि उपयुक्त मानी जाती है। कुसुम की उत्पादन क्षमता का सही लाभ लेने के लिये इसे गहरी काली जमीन मेें ही बोना चाहिये। इस फसल की जड़ें जमीन में गहरी जाती है।

जातियों का चुनाव
मध्यप्रदेश में बोने के लिये कई उपयुक्त जातियाँ हैं, जो जवाहर लाल नेहरु कृषि विश्वविद्यालय के कुसुम अनुसंधान केंद्र, कृषि महाविद्यालय, इंदौर से निकाली गई है। यह सभी जातियाँ लगभग 135 से 140 दिनों में पकने वाली है। इन्हीं जातियों से परिस्थिति के अनुकूल चयन करना चाहिये।

एन.ए.आर.आई-6
पकने की अवधि 117-137 10 प्रति हेक्टर रोयें रहित किस्म तेल अधिक होता है।

जे.एस.एफ – 1
यह जाति सफेद रंग के फूल वाली है। इसके पौधे काँटेदार होते हैं। इसका दाना बड़ा एवं सफेद रंग का होता है। इस जाति के दानों में 30 प्रतिशत तेल होता है।

जे.एस.आई.-7
इस जाति की विशेषता यह है कि यह काँटें रहित हैं। इसके खिले हुये फूल पीले रंग के होते है और जब सूखने लगते हैं, तो फूलों का रंग नारंगी लाल हो जाता है। इसका दाना छोटा सफेद रंग का होता है। दानों में 32 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है।

जे.एस.आई -73
यह जाति भी बिना काँटें वाली है। इसके भी खिले हुये फूल पीले रंग के रहते हैं और सूखने पर फूलों का रंग नारंगी लाल हो जाता है। इसका दाना जे.एस.आई -7 जाति से थोड़ा बड़ा सफेद रंग का होता है। इसके दानों में तेल की मात्रा 31 प्रतिशत होती है।

फसल चक्र
इस फसल को सूखा वाले क्षेत्र या बारानी खेती में खरीफ मौसम में किन्हीं कारणों से फसलों के खराब होने के बाद आकस्मिक दशा में या खाली खेतों में नमीं का संचय कर सरलता से उगाया जा सकता है। खरीफ की दलहनी फसलों के बाद द्वितीय फसल के रुप में जैसे सोयाबीन, मूंग, उड़द या मँगफली के बाद रबी में द्वितीय फसल के रुप में कुसुम को उगाया जा सकता है। खरीफ में मक्का या ज्वार फसल ली हो तो रबी मौसम में कुसुम फसल को सफलता से उगाया जा सकता है।

बीजोपचार
कुसुम फसल के बीजों को बोनी करने के पूर्व बीजोपचार करना आवश्यक है, जिससे कि फफूंद से लगने वाली बीमारियों न हो। बीजों का उपचार करने हेतु 3 ग्राम थायरम या ब्रासीकाल फफूंदनाशक दवा प्रति एक किलोग्राम स्वस्थ्य बीज के लिये पर्याप्त है।

बोने का समय
मूँग या उड़द यदि खरीफ मौसम में बोई गई हो तो कुसुम फसल बोने का उपयुक्त समय सितम्बर माह के अंतिम से अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह तक है। यदि खरीफ फसल के रुप में सोयबीन बोई है तो कुसुम फसल बोने का उपयुक्त समय अक्टूबर माह के अंत तक है। बारानी खेती है और खरीफ में कोई भी फसल नहीं लगाई हो तो सितम्बर माह के अंत से अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह तक कुसुम फसल सफलतापूर्वक बो सकते हैं।

बोने की विधि
8 किलोग्राम कुसुम का बीज प्रति एकड़ के हिसाब से दुफन या फड़क से बोना चाहिये। बोते समय कतार से कतार की दूरी 45 से.मी. या डेढ़ फुट रखना आवश्यक है। पौधे से पौधे की दूरी 20 से.मी. या 9 इंच रखना चाहिये।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा एवं देने की विधि
असिंचित अवस्था में नत्रजन 16 किलोग्राम, स्फुर 16 किलोग्राम एवं 8 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ की दर से देना चाहिये। सिंचित स्थिति में 24:16:8 किलोग्राम नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश प्रति एकड़ पर्याप्त है।

हर तीसरे वर्ष में एक बार 8-10 गाड़ी गोबर की पकी हुई खाद प्रति एकड़ भूमि में मिलाना फायदेमंद रहता है। तिलहनी फसल होने की वजह से गंधक की मात्रा 8 -10 किलोग्राम प्रति एकड़ देना उचित रहेगा।

उर्वरक की सम्पूर्ण मात्रा असिंचित अवस्था में बोनी के समय ही भूमि में दें। सिंचित स्थिति में नत्रजन की आधी मात्रा, स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बोनी के समय दें और, शेष नत्रजन की आधी मात्रा प्रथम सिंचाई के समय दें।

सिंचाई
यह एक सूखा सहनशील फसल है अत: यदि फसल का बीज एक बार उग आये तो इसे फसल कटने तक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन जहाँ सिंचाई उपलब्ध हो, वहां, अधिकतम दो सिंचाई कर सकते हैं। प्रथम सिंचाई 50 से 55 दिनों पर (बढ़वार अवस्था) और दूसरी सिंचाई 80 से 85 दिनों पर (शाखायें आने पर) करना उचित होता है।

निदाई-गुड़ाई
कुसुम फसल में एक बार डोरा अवश्य चलायें तथा एक या दो बार आवश्यकतानुसार हाथ से निदाई-गुड़ाई करें। निदाई-गुड़ाई करने से जमीन की उपरी सतह की पपड़ी टूट जायेगी। यदि दरारे पड़ रहीं हो तो वह भर जायेगी और नमीं के हास की बचत होगी। निदाई-गुड़ाई अंकुरण के 15-20 दिनों के बाद करना चाहिये एवं हाथ से निदाई करते समय पौधों का विरलन भी हो जायेगा। एक जगह पर एक ही स्वस्थ पौघा रखना चाहिये।

पौध संरक्षण
कीट

कुसुम फसल में सबसे ज्यादा माहो की समस्या रहती है। यह प्रथम किनारे के पौधों पर दिखता है। यह पत्तियों तथा मुलायम तनों का रस चूसकर नुकसान पहुँचाता है। माहो द्वारा पौधों को नुकसान न हो, इसलिये मिथाइल डेमेटान 25 ई.सी. का 0.05 प्रतिशत या डाईमिथियोट 30 ई.सी. का 0.03 प्रतिशत या ट्राइजोफास 40 ई.सी. का 0.04 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करें। आवश्यकता पड़ने पर 15 दिन बाद दुबारा छिड़काव करें।

कुसुम की फल छेदक इल्ली

पौधों में जब फूल आना शुरु होते हैं तब इसका प्रकोप देखा जाता है। इसकी इल्लियाँ कलियों के अंदर रहकर फूल के प्रमुख भागों को नष्ट कर देती हैं। इसकी रोकथाम के लिये इंडोसल्फान 35 ई.सी. का 0.07 प्रतिशत या क्लोरपायरीफास 20 ई.सी. का 0.04 प्रतिशत या डेल्टामेथ्रिन का 0.01 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करें।

रोग
कुसुम फसल में रोगों की कोई विशेष समस्या नहीं है। रोग या बीमारियाँ हमेशा वर्षा के बाद अधिक आर्द्रता की वजह से खेत में फैली गंदगी से, एक ही स्थान पर बार-बार कुसुम की फसल लेने से होती है। अत: उचित फसल चक्र अपनाना, बीज उपचारित कर बोना व ,खेत में स्वच्छता रखकर, जल निकास का अच्छा प्रबंध करने से बीमारियाँ नहीं आयेगी।

जड़-सड़न रोग

जब कुसुम फसल के पौधे छोटे होते हैं तब सड़न बीमारी देखने को मिलती है। पौधों की जड़े सड़ जाने से जड़ों पर सफेद रंग का फफूंद जम जाता है। पौधों की जड़ें सड़ जाने के कारण पौधे सूख जाते हैं। इस रोग की रोकथाम के लिये बीजोपचार आवश्यक है। बीजोपचार करके ही बोनी करना चाहिये।

भभूतिया रोग

इस बीमारी में पत्तों एवं तनों पर सफेद रंग का पावडर जैसा पदार्थ जमा हो जाता है। खेतों में इस प्रकार के पौधे दिखने पर घुलनशील गंधक 3 ग्राम प्रति लीटर लेकर छिड़काव करें या फिर गंधक चूर्ण 7-8 किलो प्रति एकड़ के हिसाब से भुरकाव करें।

गेरुआ

इस बीमारी का प्रकोप होने पर डायथेन एम 45 नामक दवा, एक लीटर पानी में तीन ग्राम मिलाकर फसल पर छिड़काव करके रोकथाम कर सकते हैं।

फसल कटाई
कांटेवाली जाति में काँटो के कारण फसल काटने में थोड़ी कठिनाई जरुर आती है। काँटेवाली फसल में पत्तों पर काँटें होते हैं। तने कांटे रहित होते हैं। बाँये हाथ्ज्ञ में दास्ताने पहनकर या हाथ में कपड़ा लपेटकर या तो दो शाखा वाली लकड़ी में पौधों को फंसाकर दराते से आसानी से फसल कटाई कर सकते हैं। काँटे रहित जातियों की कटाई में कोई समस्या नहीं हैं। बहुत अधिक में कुसुम फसल का रकबा हो तो कम्बाइन हार्वेस्टर से भी कटाई कर सकते हैं।

उपज

जे.एस.एफ. – 1 जाति की पैदावार 680 किलोग्राम प्रति एकड़ प्राप्त होती हैं
जे.एस.एफ. – 7 जाति की पैदावार 520 किलोग्राम प्रति एकड़ प्राप्त होती है
जे.एस.एफ. – 73 जाति की पैदावार 580 किलोग्राम प्रति एकड़ प्राप्त होती है।

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