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भारत की कृषि समस्याएं

Posted on December 15, 2020December 15, 2020 By User No Comments on भारत की कृषि समस्याएं

1. ग्रामीण-शहरी विभाजन-

भारत में अधिकांश खेती देश के ग्रामीण हिस्सों में की जाती है. हालांकि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में सुधार हुआ है लेकिन भारत के ग्रामीण और शहरी अंतर के पुल को कम करने के लिए यह पर्याप्त नहीं है.ग्रामीण मासिक प्रति व्यक्ति व्यय 1993-94 और 2004-05 के बीच 0.8% की एक अप्रत्यक्ष वार्षिक दर से बढ़ी, लेकिन 2004-05 और 2011-12 के बीच इसमें 3.3% की तीव्र गति से वृद्धि हुई (निरंतर 1987-88 कीमतों पर).
लेकिन शहरी आय की वृद्धि दर तेज हो गई है और ग्रामीण और शहरी उपभोग के बीच का अंतर इस अवधि से थोड़ी सा बढ़ गया है. इस प्रकार  ग्रामीण आय में बढ़ोतरी और ग्रामीण गरीबी दर गिरने के बावजूद भी  खेती के   अंतर्गत असमानता केवल ग्रामीण इलाकों में पाया जाता है.
लोकनीति द्वारा 2014 में किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 40% किसान अपनी आर्थिक स्थिति से पूरी तरह से असंतुष्ट थे. यह आंकड़ा पूर्वी भारत में 60% से अधिक था. 70% से अधिक किसानों का यह मानना है कि शहरी जीवन ग्रामीण जीवन से बेहतर है.

2. कृषि में निवेश का अभाव

कृषि क्षेत्रों में नए निवेश में कमी हुई है. कई अर्थशास्त्रियों ने इसके लिए कई कारण बताए हैं और कई लोग मानते हैं कि कृषि में अस्थिरता का मूल कारण भूमि असमानता है. यह तर्क दिया जाता है कि खेती की व्यवस्था के तहत मकान मालिक-किरायेदार आदि द्वार बाद के  सभी उत्पादन खर्चों को वहन किया जाता है और किरायेदारों में निवेश योग्य संसाधनों की कमी होती है जो कृषि उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं.
 कृषि में निवेश करना अन्य वेंचरों में निवेश की तुलना में कम लाभदायक होता है.अन्य क्षेत्रों में निवेश कृषि की बजाय उच्च रिटर्न देने वाले सिद्ध होते हैं.परिणाम स्वरुप कृषि में निवेश में कमी हुई है और इस क्षेत्र का नुकसान हुआ है.

3. प्रभावी नीतियों का अभाव

भारत में कृषि से संबंधित समस्याओं को हल करने के लिए सरकारों द्वारा किए गए कई प्रयासों के बावजूद भारत में कोई सुसंगत कृषि नीति नहीं है.भारतीय कृषि में स्थिरता और उत्पादकता में वृद्धि के मुद्दे को लेकर एक सुसंगत कृषि नीति पर एक व्यापक समझौता की आवश्यकता है.
राजनैतिक और आर्थिक दोनों कारणों से पिछले कुछ दशकों में भारतीय राज्य द्वारा व्यापक आधार पर कृषि कार्यों की उपेक्षा की गयी है. पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारत की तरह अधिकांश विकासशील देशों ने अपने कृषि क्षेत्र के संरचनात्मक विकास को नजरअंदाज किया है. तुलनात्मक रूप से भारत ने अपने कृषि विकास के वनिस्पत अपने औद्योगिक विकास पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है.

4. प्राकृतिक संसाधनों के सही उपयोग का अभाव

जब खेती की बात आती है तो इस क्षेत्र के लिए भारत ने अपने प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित और विकसित नहीं किया है. मुख्य रूप से सिंचाई से संबंधित संसाधनों को संरक्षित करने के लिए बहुत कम प्रयास किया गया है. महाराष्ट्र और अन्य जगहों में प्रवास की कहानियों और गंभीर जल संकट से स्थिति की गंभीरता स्वतः स्पष्ट हो जाती है.

5. विमुद्रीकरण का प्रभाव

कृषि में तनाव की घटनाओं का दिखाई देने का मुख्य कारण विमुद्रीकरण है. इस वित्तीय वर्ष में कृषि उत्पादों में कमी आई थी. नकद कृषि क्षेत्र में लेनदेन का प्राथमिक तरीका है जो भारत के कुल उत्पादन में 15% योगदान देता है. इनपुट-आउटपुट चैनलों के साथ-साथ मूल्य और आउटपुट फीडबैक प्रभावों से कृषि प्रभावित होती है. बिक्री, परिवहन, विपणन और थोक केंद्रों या मंडियों के लिए तैयार माल का वितरण मुख्य रूप से नकद  लेन देन पर ही आधारित है.
इसके अतिरिक्त विमुद्रीकरण के कारण आपूर्ति की श्रृंखला में गिरावट,  व्यापार के बकाया को नकदी के बजाय कम राजस्व के रूप में दिखाया जाना और सीमित पहुंच वाले बैंक खातों में जमा करने जैसे अवरोधों की वजह से कृषि क्षेत्र प्रभावित होता है.

6. कीमतों पर अत्यधिक हस्तक्षेप

भारत में मूल्य नियंत्रण पर कई प्रतिबंध हैं. उन प्रतिबंधों से भारतीय कृषि को मुक्त किया जाना चाहिए.
 इसके अलावा अस्थिर कीमतों, कृषि उत्पादों के आंदोलन पर प्रतिबंध और वैश्विक बाजारों तक पहुंच की कमी के कारण इस क्षेत्र में वाणिज्यिक जोखिमों को लेकर कुछ  सुधारात्मक उपायों को लागू करने की आवश्यकता है.
 कई विशेषज्ञों का मानना है कि इस संकट का समाधान राज्य नियंत्रण की व्यवस्था को खत्म करने से कुछ हद तक हो सकता है.

7. सिंचाई सुविधाएं

भारत के कुल शुद्ध सिंचाई क्षेत्र में सरकारी आंकड़े में शायद ही कभी कोई वृद्धि दिखाई गयी हो. कुल सिंचित क्षेत्र लगभग 63 मिलियन हेक्टेयर है और देश में बोया हुआ कुल क्षेत्रफल का केवल 45 प्रतिशत ही है.
हाल के वर्षों में असम, मध्य प्रदेश, जम्मू और कश्मीर और राजस्थान में सिंचाई की सुविधाओं में कुछ सुधार हुआ है. लेकिन 2004-05 में प्रमुख, मध्यम और लघु सिंचाई में वास्तविक सार्वजनिक निवेश में 2,35 अरब रूपये से लेकर 2013-14 में 30 9 बिलियन तक भारी वृद्धि के कारण यह नगण्य लगता है.भारत ने प्रमुख परियोजनाओं के लिए अपने पूंजीगत व्यय में में 3.5 गुना तक वृद्धि की है, जबकि छोटे सिंचाई में निवेश केवल 2.5 गुना बढ़ा है.
सिंचित क्षेत्र में बनी स्थिरता से इस क्षेत्र में किये जाने वाले निवेश और इसकी दक्षता पर सवाल उठते है. सिंचाई  क्षेत्र में विकास के लिए इन बातों पर गौर करना जरुरी है.
सरकारी आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि मध्यम और बड़े सिंचाई परियोजनाओं की तुलना में छोटे सिंचाई परियोजनाओं के लिए सार्वजनिक व्यय से बनाई गई सिंचाई क्षमता का अनुपात अधिक है. छोटी सिंचाई परियोजनाओं पर नीति निर्माताओं द्वारा कम ध्यान दिया गया है. लेकिन वास्तविकता यह है कि कुओं, बाढ़ नियंत्रण और सूखे की कमी के रिचार्जिंग के लिए छोटे सिंचाई परियोजनाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं.

8. सुस्त उर्वरक उद्योग

पिछले 15 वर्षों में भारत में उर्वरक क्षेत्र के अंतर्गत कोई निवेश नहीं हुआ है. कुछ यूरिया निर्माता भी अपना शटर डाउन करने की गंभीरता से सोच रहे हैं. ऐसी स्थिति उस समय है जब दुनिया में उर्वरकों की मांग के अनुसार सबसे अधिक उत्पादन भारत में होता है.लेकिन आज कल निर्यात की बजाय आयात दिनों दिन बढ़ता जा रहा है. उत्पादन काफी हद तक स्थिर बना हुआ है.
इसका मुख्य कारण भारतीय उर्वरक नीति में व्याप्त समस्याएं हैं.इस उद्योग में अवैतनिक उर्वरक सब्सिडी बिल 40,000 करोड़ रुपये से अधिक तक पहुंच गया है एवं इसे इस वित्त वर्ष के अंत तक 48,000 करोड़ रुपये तक पहुंचने की संभावना है.उर्वरक सब्सिडी के लिए करीब 73,000 करोड़ रुपये के बजटीय आवंटन का वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है. वर्ष दर वर्ष वकाया की राशि बढ़ती ही जा रही है. इसके अतिरिक्त भारत उपभोग के लिए लगभग एक-तिहाई नाइट्रोजन का आयात करता है, जबकि तुलनात्मक रूप से 2000-01 में इसके 10 प्रतिशत से भी कम आयात करता था.

9. मानसून पर निर्भरता

भारत में अधिकांश कृषि क्षेत्र असिंचित होने के कारण कृषि क्षेत्र में समग्र विकास के लिए मानसून महत्वपूर्ण है. ऐसे मामले में मानसून पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की निर्भरता को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है.
बीज बोने का पैटर्न हमेशा उस क्षेत्र के मॉनसून पर निर्धारित होता है. ख़राब मॉनसून के कारण खेती पर बहुत बुरा असर पड़ता है और किसानों को बहुत भारी नुकसान उठाना पड़ता है. ऐसी ही स्थिति खरीफ फसलों के उत्पादन और उपज में भी उत्पन्न होती है. अधिकांश कृषि राज्यों में मॉनसून पर निर्भरता के कारण खरीफ फसलों का  उत्पादन किसानों को बिना किसी फायदे के करना पड़ता है.

10. किसान उत्पादक संगठनों की अक्षमता

भारत में किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) को मजबूत किया जाना चाहिए. क्या छोटे और सीमान्त किसान एफपीओ से लाभान्वित हो रहे हैं या नहीं इस मुद्दे पर विशेष ध्यान देना चाहिए. एफपीओएस द्वारा दूध सहकारी समितियों से सबक सीखा जाना चाहिए.मूल्य श्रृंखलाओं के विकास के लिए कमोडिटी-विशिष्ट एफपीओ को प्रोत्साहन दिया जा सकता है. उदाहरण स्वरुप  दालों के लिए एफपीओ बड़े पैमाने पर विकसित किए जा सकते हैं

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