मेंहदी एक बहुवर्षीय झाड़ीदार फसल है जिसे व्यवसायिक रूप से पत्ती उत्पादन के लिए उगाया जाता है. मेंहदी प्राकृतिक रंग का एक प्रमुख श्रोत है. शुभ अवसरों पर मेंहदी की पत्तियों को पीस कर सौन्दर्य के लिए हाथ व पैरों पर लगाते है. सफेद बालों को रंगने के लिए भी मेंहदी की पत्तियों का प्रयोग किया जाता है. इसका सिर पर प्रयोग करने से रूसी (डेंड्रफ) की समस्या भी दूर हो जाती है. इसकी पत्तियां चर्म रोग में भी उपयोगी है. गर्मी के मौसम में हाथ व पैरों में जलन होने पर भी मेंहदी की पत्तियों को पीसकर लगाया जाता है. इसका उपयोग किसी भी दृष्टिकोण से शरीर के लिए हानिकारक नहीं है. मेंहदी की हेज घर, कार्यालय व उद्यानों में सुन्दरता के लिए लगाते है. मेंहदी शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में बहुवर्षीय फसल के रूप में टिकाऊ खेती के सबसे अच्छे विकल्पों में से एक है. मेंहदी की खेती पर्यावरण संरक्षण में भी सहायक है.
उत्पादक क्षेत्र
मेंहदी पूरे भारत वर्ष में पायी जाती है. राजस्थान में पाली जिले का सोजत व मारवाड़ जंक्शन क्षेत्र वर्षो से मेंहदी के व्यवसायिक उत्पादन का मुख्य केन्द्र है. यहां करीब 40 हजार हेक्टर भूमि पर मेंहदी की फसल उगायी जा रही है. सोजत में मेंहदी की मण्डी व पत्तियों का पाउडर बनाने तथा पैकिंग करने के कई कारखाने है. सोजत की मेंहदी अपनी रचाई क्षमता के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है. सोजत से विदेशों में बड़े स्तर पर मेंहदी निर्यात की जाती है.
प्रजातियां
कुछ अनुसंधान संस्थानों व कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा मेंहदी में आनुवांशिक सुधार कार्यक्रम के तहत उच्च उत्पादन क्षमता वाले पौधों की पहचान की गई है. लेकिन अधिकारिक तौर पर अभी तक कोई उन्नत किस्म विकसित नहीं हुई है. अतः स्थानीय फसल से ही स्वस्थ, चैड़ी व घनी पत्तियों वाले एक जैसे पौधों के बीज से ही पौध तैयार कर फसल की रोपाई करें.
खेत की तैयारी
वर्षा ऋतु से पहले खेत की मेंड बन्दी करें तथा अवांछनीय पौधों को उखाड़कर लेजर लेवलर की सहायता से खेत को समतल करें. इसके बाद डिस्क व कल्टीवेटर से जुताई कर भूमि को भुरभुरा बना लेवें.
खाद व उर्वरक
खेत की अंतिम जुताई के समय 10 – 15 टन सड़ी देशी खाद व 250 किलो जिप्सम प्रति हेक्टर की दर से भूमि में मिलावें तथा 60 किलो नत्रजन व 40 किलो फाॅसफोरस प्रति हेक्टर की दर से खड़ी फसल में प्रति वर्ष प्रयोग करें. फास्फोरस की पूरी मात्रा व नत्रजन की आधी मात्रा पहली बरसात के बाद निराई गुड़ाई के समय भूमि में मिलावें व शेष नत्रजन की मात्रा उसके 25-30 दिन बाद वर्षा होने पर देवें.
प्रवर्धन
मेंहदी को सीधा बीज द्वारा या पौधशाला में पौध तैयार कर रोपण विधि से या कलम द्वारा लगाया जा सकता है. हेज लगाने के लिए प्रवर्धन की तीनों विधियां काम में ली जाती है. लेकिन व्यवसायिक खेती के लिए पौध रोपण विधि ही सर्वोत्तम है.
पौध तैयार करना
एक हेक्टर भूमि पर पौध रोपण के लिए करीब 6 किलो बीज द्वारा तैयार पौध पर्याप्त होती है. इस हेतु 1.5 ग 10 मीटर आकार की 8 – 10 क्यारियां अच्छी तरह तैयार कर मार्च माह में बीज की बुवाई करें. मेंहदी का बीज बहुत कठोर व चिकना होता है तथा सीधा बोने पर अंकुरण कम मिलता है. अतः अच्छा अंकुरण पाने के लिए बुवाई से करीब एक सप्ताह पहले बीज को टाट या कपड़े के बोरे में भरकर पानी के टेंक में भिगोवें व टेंक का पानी प्रतिदिन बदलते रहें. इसके बाद बीज को कार्बेन्डाजिम 2.50 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर छिटकवां विधि से बुवाई करें.
पौध रोपण
जुलाई माह में अच्छी वर्षा होने पर पौधशाला से पौधे उखाड़कर सिकेटियर द्वारा थोड़ी – थोड़ी जड़ व शाखाऐं काट दें. खेत में नुकीली खूटी या हलवानी की सहायता से 30 ग् 50 सेमी से 50 ग् 50 सेमी की दूरी पर पंक्तियों में छेद बनावें तथा प्रति छेद 1-2 पौधे रोपकर जड़े मिट्टी से अच्छी तरह दबा दें. पौध लगाने के बाद अगर वर्षा न हो तो सिंचाई कर देनी चाहिए. मेंहदी में 30 सेमी ग् 250 सेमी की दूरी को ट्रेक्टर चलित यन्त्रों द्वारा समय पर निराई गुड़ाई कर प्रभावी रूप से खरपतवार नियंत्रण व क्षेत्र नमी संरक्षण के साथ-साथ पतझड़ की समस्या में कमी व पत्ति उत्पादन में सुधार के उद्देश्य से उपयुक्त पाया गया है.
अन्तः फसलीय पद्धति
मेंहदी की 2 पंक्तियों के बीच खरीफ व रबी ऋतु में दलहन तथा अन्य कम ऊंचाई वाली फसलें उगाकर अतिरिक्त आमदनी प्राप्त की जा सकती है. अन्तः फसल के उत्पादन एवं आमदनी की दृष्टि से खरीफ में मूंग व रबी में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने पर इसबगोल व असालिया सबसे उपयुक्त फसलें पायी गई है.
निराई गुड़ाई
मेंहदी के अच्छे फसल प्रबन्धन में निराई गुड़ाई का महत्वपूर्ण स्थान है. जून-जुलाई में प्रथम वर्षा के बाद बैलों के हल व कुदाली से निराई – गुड़ाई कर खेत को खरपतवार रहित बना लेवें. गुड़ाई अच्छी गहराई तक करें ताकि भूमि में वर्षा का अधिक से अधिक पानी संरक्षित किया जा सके. मेंहदी के खेत में कुछ पौधे दीमक कीट, जड़गलन बीमारी व अन्य कारणों से सूख जाते है जिनकी जगह समय-समय पर पौध रोपण कर देना चाहिए अन्यथा उत्पादन कम हो जाता है.
पौध संरक्षण उपाय
जड़ गलन बीमारी
पौध शाला से पौधे उखाड़कर 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम के घोल में जड़े भिगोकर पौध रोपण करें. खड़ी फसल में जड़गलन बीमारी का प्रकोप होने पर 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति लीटर पानी में घोलकर रोग प्रभावित पौधों की जड़ों में डालें. बीमारी के जैविक नियंत्रण हेतु 2.50 किलो ट्राइकोड्रर्मा फफूंद को 100 किलो नमीयुक्त सड़ी देशी खाद में मिलाकर करीब 72 घण्टे छायादार स्थान पर रखें व अंतिम जुताई के समय या खड़ी फसल में कुदाली द्वारा भूमि में मिलावें.
पत्ति धब्बा रोग
सामान्य से अच्छी वर्षा की स्थिति में पौधों पर पत्ति धब्बा रोग का प्रकोप पाया जाता है. इसके नियंत्रण हेतु 0.2 प्रतिशत मैंकोजेब का छिड़काव करें.
दीमक
रासायनिक विधि द्वारा दीमक नियंत्रण हेतु कार्बोफ्यूरान 3 जी 25 किलो प्रति हेक्टर या क्लोरपायरीफॉस 20 ई.सी. 4 लीटर प्रति हेक्टर की दर से भूमि में मिलावें. जैविक विधि द्वारा दीमक नियंत्रण हेतु 5 किलो बावेरिया या मेटाराईजियम फफूंद को 100 किलो नमीयुक्त सड़ी देशी खाद में मिलाकर करीब 72 घण्टे छायादार स्थान पर रखें व अंतिम जुताई के समय या खड़ी फसल में कुदाली द्वारा भूमि में मिलावें.
पत्ति भक्षक लट
पत्ति भक्षक लट का प्रकोप होने पर क्यूनालफास 25 ई.सी. 1.0 -1.50 लीटर दवा 500 से 700 लीटर पानी में घोलकर छिड़के. धूल के रूप में क्युनाॅलफाॅस 1.50 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत चूर्ण 20-25 किलो प्रति हेक्टर की दर से भुरकें. लटों के जैविक नियंत्रण हेतु भुने हुए बाजरे का चुग्गा खेत में 8-10 जगह स्टेण्ड बनाकर रखें. चुग्गे के आकर्षण से चिड़ियां खेत में आकर लटों को खा जाती है.
रस चूसक कीड़े
सफेद मक्खी व हरा तेला आदि रस चूसक कीडों के नियंत्रण हेतु ट्राइजोफॉस 40 प्रतिशत ईसी 1.50 ली. या एसीफेट 75 एस.पी. 500 ग्रा. या मोनोक्रोटोफॉस 36 डब्लू.एस.सी. 1 ली. या डाइमिथोएट 30 ई.सी. 1 ली. या इमिडाक्लोपरिड 17.80 एसएल 100 से 150 मिली/हेक्टर की दर से 500 से 700 लीटर पानी में घोलकर छिड़कें.
