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राजमा की खेती की जानकारी जलवायु, किस्में, रोकथाम व पैदावार

Posted on December 17, 2020December 17, 2020 By User No Comments on राजमा की खेती की जानकारी जलवायु, किस्में, रोकथाम व पैदावार

राजमा की खेती (Farming of French bean) रबी ऋतु में की जाती है| राजमा को फ्रेंच बीन कहते है| राजमा की खेती (Farming of French bean) सब्जी एवं दाना के लिए की जाती है| स्वाद और सेहत के लिहाज से राजमा की फलियां (बीन्स) सबसे महत्वपूर्ण होती है, और इसकी जायकेदार सब्जी प्रायः सभी लोग बेहद पसंद करते है| अधिक मांग होने की वजह से बाजार में इसकी बीन्स सबसे मंहगे दामों में बिकती है| इसलिए राजमा को नकदी फसल के रूप में उगाया जाने लगा है|

यह खाने में स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक होता है, और मुनाफे की दृष्टि से अन्य दलहनों से बेहतरीन फसल है| राजमा के दानों में सामान्यत 23 प्रतिशत प्रोटीन, 60 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है| इसके 100 ग्राम दानों में 260 मिली ग्राम कैल्शियम, 410 मिली ग्राम फाॅस्फोरस, एवं 5.8 मिली ग्राम लौह तत्व पाये जाते हैं, जो मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होते है|

राजमा की खेती (Farming of French bean) द्वारा भारत में उत्तर के मैदानी क्षेत्रो, हिमालयन रीजन की के पहाड़ी क्षेत्रो और महाराष्ट्र से सबसे अधिक उत्पादन मिलता है| यदि कृषक इसकी खेती वैज्ञानिक तकनीक से करें, तो राजमा की फसल से इच्छित उपज प्राप्त की जा सकती है| इस लेख में राजमा की उन्नत खेती कैसे करें का विस्तृत उल्लेख है|

उपयुक्त जलवायु

चूँकि पहाड़ी क्षेत्रों में राजमा की बुआई खरीफ में एवं निचले स्थान तथा तराई क्षेत्र में बसन्त ऋतु में की जाती है| यह उत्तर पूर्वी क्षेत्रों एवं महाराष्ट्र के पहाड़ी क्षेत्रों में रबी में ली जाती है| यह फसल पाला एवं जल भराव के प्रति अधिक संवेदनशील है| फसल की वृद्धि के लिए 10 से 27 डिग्री सेंटीग्रेट अनुकूल तापमान है| 30 डिग्री सेंटीग्रेट से ज्यादा तापमान होने पर फूलों के झड़ने की अधिक समस्या पाई गई है| 5 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान से कम होने पर फूलों एवं फलियों तथा शाखाओं में क्षति होती है|

भूमि का चुनाव

राजमा की खेती के लिए गहरे-हल्के गठन वाली बलुई दोमट से बुलई चिकनी मृदायें उपयुक्त रहती हैं| अधिक जल धारण क्षमता वाली मृदा जिसका पीएचपी मान 6.5 से 7.5 उत्तम रहती है| लवणीय तथा क्षारीय मृदायें अनुपयुक्त रहती हैं| निष्कर्ष यह निकलता है, की राजमा की खेती (Farming of French bean) हल्की दोमट मिट्टी से लेकर भारी चिकनी मिट्टी तक में की जा सकती है|

खेत की तैयारी

प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2 से 3 जुताईयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से करने के पश्चात् पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए। दीमक से फसल सुरक्षा हेतु क्लोरपायरीफास 1.2 प्रतिशत 20 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिलाना चाहिए और खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए एवं खेत खरपतवार मुक्त होना चाहिए|

उन्नत किस्में

एच.यू.आर15- सफेद दानों वाली किस्म है| इसके 100 दानों का वजन 40 ग्राम तक है, तथा 120 से 125 दिनों में पककर तैयार होती है| इसकी उपज 18 से 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|

पी.डी.आर 14 (उदय)- यह बड़े दानों वाली किस्म है, जिसके 100 दानों का वजन 44 ग्राम तक होता है, तथा इसके दानों का रंग सफेद-चित्तीदार होता है| यह किस्म 125 से 130 दिनों में पककर तैयार हो जाती है, तथा इसकी अधिकतम उत्पादन क्षमता 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हैं|

एच.यू.आर 15- सफेद दानों वाली किस्म है| इसके 100 दानों का वजन 40 ग्राम तक है, तथा 120 से 125 दिनों में पककर तैयार होती है| इसकी उपज 18 से 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|

वी.एल 60- यह खरीफ एवं रबी दोनों मौसम के लिये उपयुक्त हैं| इसके दानों का रंग भूरा एवं 100 दानों का वजन 36 ग्राम तक होता है| यह 110 से 115 दिन में पककर 15 से 20 क्विंटल/हेक्टेयर दाना उपज देती है|

अन्य किस्में- बी.एल 63, अम्बर, आई.आई.पी.आर 96-4, उत्कर्ष, आई.आई.पी.आर 98-5, एच.पी.आर 35, बी,एल 63, अरुण और हूर -15 आदि है|

बोवाई का समय

राजमा की खेती (Farming of French bean) के उत्पादन पर बोवाई के समय का प्रभाव अन्य दलहनी फसलों की अपेक्षा अधिक पड़ता है| देश के उत्तरी पूर्वी भाग में राजमा की बोवाई का सबसे उपयुक्त समय अक्टूम्बर के अंतिम सप्ताह से लेकर नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक होता है| परन्तु देश के उत्तर पश्चिमी भाग जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में अधिकतम उपज सितम्बर के मध्य में बोने से प्राप्त होती है|

जबकि पहाड़ी क्षेत्रों में जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक बुवाई का उपयुक्त समय है| देर से बोवाई करने पर उपज में भारी कमी आ जाती है, क्योंकि ऐसी अवस्था में राजमा के पौधों की वानस्पतिक वृद्धि घट जाती है| जिसमे फलियों संख्या की और दानों के भार में काफी कमी आ जाती है|

बीज की मात्रा

राजमा से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए 2.5 से 3.5 लाख पौधे प्रति हैक्टेयर अवश्य होने चाहिए| यह पौध संख्या दानों के भार के अनुसार प्रति 120 से 125 किलोग्राम बीज दर से प्राप्त की जा सकती है|

बीज शोधन

बीजोपचार फफूँदीनाशी रसायन कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन 50 डब्लूपी) 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करना आवश्यक है, या 2 से 3 ग्राम थीरम से प्रति किलोग्राम बीज की मात्र के हिसाब से बीज शोधन करना चाहिए|

बुवाई विधि

राजमा की खेती के लिए लाइन से लाइन की दूरी 30 से 40 सेंटीमीटर रखते है, और पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर रखते है, इसकी बुवाई 8 से 10 सेंटीमीटर की गहराई पर करते है|

खाद एवं उर्वरक

राजमा की अधिक उपज लेने के लिए खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करना आवश्यक है| गोबर की खाद या कम्पोस्ट 10 से 15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय मिलाना चाहिए| इसके साथ साथ 120 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस एवं 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर तत्व के रूप में देना आवश्यक है|

नत्रजन की आधी मात्रा, फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय तथा बची आधी नत्रजन की आधी मात्रा खड़ी फसल में देनी चाहिए| इसके साथ ही 20 किलोग्राम गंधक की मात्रा देने से लाभ होता है| 20 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव बुवाई के बाद 30 दिन तथा 50 दिन में करने पर उपज अच्छी मिलती है|

सिंचाई व्यवस्था

राजमा कि जड़ें उथली होने के कारण नम भूमि एव अधिक पानी की जरूरत पड़ती है| राजमा को 25 दिन की अन्तराल से तीन से चार सिंचाई जैसे- बुआई के 25, 50, 75 और 100 दिन बाद सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है| सिंचाई हल्की करें, तथा खेत में पानी रूकना नहीं चाहिए| समुचित जल निकासी आवश्यक है|

खरपतवार रोकथाम

खरपतवार नियंत्रण के लिए राजमा की फसल में 1 से 2 निराई-गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है| पहली निराई गुड़ाई प्रथम सिंचाई के बाद करना चाहिए| गुड़ाई के समय पौधों पर थोड़ी मिट्टी चढ़ाना लाभप्रद रहता है| खरपतवार के रासायनिक नियंत्रण हेतु पेन्डीमेथलीन 3.3 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 800 से 900 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए, बुवाई के तुरंत बाद (अंकुरण से पूर्व) छिड़काव करना चाहिए| छिड़काव के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिये|

रोग एवं रोकथाम

एन्ट्रेक्नोज- राजमा के प्रभावित पौधे के बीजपत्र पर पीले-भूरे चित्तेदार धब्बे दिखाई देते हैं| पत्तियों के ऊपरी, निचली एवं साथ ही साथ तनों पर भी गहरे रंग के धारीदार धब्बे दिखाई देते हैं|

रोकथाम

1. बीजोपचार थायरम + कार्बेन्डाजिम (2:1) 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज ग्राम की दर से उपचार करें|

2. मेंकोजेब का छिड़काव 0.25 प्रतिशत (2.5 ग्राम प्रति लीटर) दर से अथवा कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिशत (1 ग्राम प्रति लीटर) का 2 से 3 बार पत्तों पर छिड़काव बुवाई के 40, 60 एवं 75 दिन के बाद करें|

3. संक्रमित पौधे को खेत से बाहर निकाले तथा फसल अवशेष को नष्ट करें|

4. 2 से 3 साल का फसलचक अपनायें|

5. फव्वारा पद्धति से सिंचाई न करें|

6. खेत में अधिक नमी होने पर आवाजाही न करें|

तना गलन- इसके प्रारम्भिक लक्षण राजमा की पत्तियों पर छोटे जलीय धब्बे के रूप में संक्रमण के 4 से 10 दिन में ही दिखाई देने लगते हैं| धब्बों का केन्द्र सूख कर भूरा तथा किनारे चमकीले पीले रंग के हो जाते हैं|

रोकथाम

1. कार्बेन्डाजिम का 0.1 प्रतिशत (1 ग्राम प्रति लीटर) की दर से 2 से 3 बार पत्तियों पर छिड़काव फूल आने के समय एवं उसके पहले करें|

2. जल्दी अथवा समय पर बुवाई करें|

3. अच्छी जल निकासी वाली भूमि में बुवाई करें|

4. घनी बुवाई ना करें|

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