बकायन नीम की जाति का एक पेड़ है। भारत में प्रायः सभी प्रान्तों में पाया जाता है। नीम से छोटा एवं अचिरस्थाई होता है। इसके पत्ते कड़वे नीम के समान तथा आकार में कुछ बड़े होते हैं। बकाइन की लकड़ी इमारती कामों के लिए बहुत उपयोगी होता है। यह छायादार पेड़ होता है। इसके फल भी कड़वे नीम के फल के समान होते हैं।
इसको महानिम्ब भी कहते हैं। यह एक औषधीय पेड़ है। आयुर्वेद में बकायन का बहुत महत्त्व है। बकायन से विभिन्न रोगों का उपचार किया जाता है । बवासीर, नेत्ररोग, मुह के छाले, पेट मे दर्द, आँतो के कीड़े, प्रमेह, श्वेतप्रदर, खुजली, पेट के कीड़े आदि, अर्श में तो बकायन का बहुत महत्व है ।
भारतवर्ष में हिमालय के निचले प्रदेशों में 1800 मी की ऊंचाई तक विशेषत उत्तर भारत, पंजाब तथा दक्षिणी भारत में इसके नैसर्गिक अथवा बोए हुए वृक्ष मिलते हैं। इसके वृक्ष भी नीम वृक्ष की भांति सीधे मध्यमाकार 9-12 मी ऊंचे होते हैं। फागुन और चैत्र मास में इस वृक्ष से एक दुधिया-रस निकलता है, अत इस अवधि में कोमल पत्रों के अलावा और किसी अंग के रस अथवा क्वाथ का प्रयोग नहीं करना चाहिए। वैसे भी इस वृक्ष के किसी भी अंग का व्यवहार उचित मात्रा में तथा सावधानीपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि यह कुछ विषैला होता है। फलों की अपेक्षा छाल और फूल कम विषैले होते हैं। बीज सबसे अधिक विषैले और ताजे पत्र प्राय हानिकारक नहीं होते हैं। इसके फलों और बीजों की माला बनाकर दरवाजे और खिड़कियों पर टांगने से बीमारियों का प्रभाव नहीं होता तथा इसके फलों की माला पहनने से संक्रामक रोगों का शरीर पर आक्रमण नहीं होता।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
बकायन कफपित्तशामक, कुष्ठ, रक्तविकार, वमन, हृल्लास, प्रमेह, श्वास, गुल्म, अर्श तथा चूहों के विष को दूर करने वाली है।
इसकी जड़ तीक्ष्ण, तिक्त, स्तम्भक, तापजनक, वेदनाहर, विशोधक, क्षतिविरोहक, पूयरोधी, कृमिनाशक, मलबन्धकर, कफनिसारक, ज्वरघ्न, नियतकालिक रोगरोधी, मूत्रस्तम्भक, आर्तवजनन एवं बलकारक होती है।
इसके पत्र तिक्त, स्तम्भक, कफनिस्राक, कृमिनिसारक, अश्मरीरोधी, मूत्रल, आर्तवजनन, प्रदाहशामक, विषरोधी एवं आमाशय सक्रियता वृद्धिकारक होते हैं।
इसकी मूल त्वक् प्रदाहनाशक तथा विषरोधी होती है।
इसके बीज तिक्त, कफनिसारक, कृमिघ्न एवं वाजीकारक होते हैं।
इसका बीज तैल विरेचक, कृमिघ्न, विशोधक, शीघ्रपाकी एवं बलकारक होता है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
- शिरशूल-प्रसूति काल में होने वाले गर्भाशय शूल और मस्तक शूल में बकायन के पत्तों और फूलों को 10-10 ग्राम की मात्रा में लेकर पीसकर सिर और वस्ति-प्रदेश पर बाँधने से लाभ होता है।
- बकायन के पुष्पों व पत्रों को पीसकर शिर व मस्तक में लगाने से सिर की जुएं मर जाती हैं। (तंत्रकीय शिरशूल में लाभ हाता है।)
- बकायन के फूलों के 50 मिली स्वरस को सिर पर लगाने से त्वचा, अरंषिका आदि विकारों का शमन होता है।
- बकायन के फलों को पीसकर छोटी टिकिया बनाकर नेत्रों पर बाँधते रहने से पित्तज-नेत्राभिष्यन्द का शमन होता है।
- बकायन के एक किग्रा हरे ताजे पत्तों को पानी से धोकर अच्छी प्रकार से कूट, पीसकर तथा निचोड़ कर रस निकाल लें, इस रस को पत्थर के खरल में घोटकर सुखा लें, पुन 1-2 खरल करें तथा खरल करते समय 3 ग्राम तक भीमसेनी कपूर मिला दें, इसको प्रात सायं नेत्रों में अंजन करने से मोतियाबिन्दु तथा अन्य प्रकार से उत्पन्न दृष्टिमांद्य, जलस्राव, लालिमा, कंडू आदि विकार दूर होते हैं।
- महानिम्ब के फलों की पिण्डिका बना कर नेत्रों पर बाँधने से पित्तज अभिष्यंद में लाभ होता है।
- मुंह के छाले-बकायन की छाल और सफेद कत्था, दोनों को बराबर (10-10 ग्राम) लेकर चूर्ण बनाकर लगाने से मुंह के छाले ठीक हो जाते हैं।
- 20 ग्राम नीम छाल को जलाकर 10 ग्राम सफेद कत्थे के साथ पीसकर मुख के भीतर लगाने से लाभ होता है।
- गंडमाला- 5 ग्राम बकायन की छाया शुष्क छाल और 5 ग्राम पत्ते दोनों को कूटकर 500 मिली पानी में पकाकर चतुर्थांश शेष क्वाथ कर पिलाएं तथा इसी का लेप भी करें। इसके प्रयोग से गंडमाला और कुष्ठ में लाभ होता है।
