उड़द की खेती
परिचय
मानसिक विकार पेट की बीमारियाँ तथा गठियावात जैसी बीमारियो को दूर करने की क्षमता होती उड़द एक महत्वपूर्ण दलहन फसल है। उड़द की खेती प्राचीन समय से होती आ रही है। हमारे धर्म ग्रंथो मे इसका कई स्थानो पर वर्णन पाया गया है। उड़द का उल्लेख कौटिल्य के “अर्थशास्त्र तथा चरक सहिंता” मे भी पाया गया है। वैज्ञानिक डी कॅडोल (1884) तथा वेवीलोन (1926) के अनुसार उड़द का उद्गम तथा विकास भारतीय उपमहाद्वीप मे ही हुआ है।
उड़द की फसल कम समयावधि मे पककर तैयार हो जाती है। इसकी फसल खरीफए रबी एवं ग्रीष्म मौसमो के लिये उपयुक्त फसल है। हमारे देश मे उड़द का उपयोग प्रमुख रूप से दाल के रूप मे किया जाता है। उड़द की दाल व्यंजन जैसे कचैड़ी, पापड़, बड़ी, बडे़, हलवा,इमरती,पूरी,इडली,डोसा आदि भी तैयार किये जाते है। इसकी दाल की भूसी पशु आहार के रूप मे उपयोग की जाती है। उड़द के हरे एवं सूखे पौधो से उत्तम पशु चारा प्राप्त होता है। उड़द दलहन फसल होने के कारण वायुमण्डल की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके भूमि की उर्वरा शक्ति मे वृद्धि करती है।
इसके अतिरिक्त उड़द को उगाने से खेत मे पत्तियाँ एवं जड़ रह जाने के कारण भूमि मे कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है। उड़द की फसल को हरी खाद के रूप मे उपयोग किया जा सकता है। उड़द के दानो मे औषधि गुण भी विद्यमान होते है। इसके दानो मे मधुमेहए शीघ्रपतन है।
उपयोगिता
| पोषण मे योगदान – |
| भोजन का मुख्य अंग प्रोटीन होता है जो कि माँस,मछली,अण्डा एवं दूध से प्राप्त होता है। भारत की जनसंख्या का अधिकांश भाग शाकाहारी होने के कारण प्रोटीन की पूर्ति दालो से ही होती है। सभी दालो मे उड़द की दाल मे सबसे अधिक प्रोटीन होता है। अतः उड़द की दाल का भोजन में महत्वपूर्ण स्थान है। प्रोटीन के अतिरिक्त इसमे कई प्रकार के महत्वपूर्ण विटामिन एवं खनिज लवण भी पाये जाते है यह स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद होते है। उड़द की पोषक मूल्य सारणी -1 मे दिया गया है। |
उत्पादन तकनीक
जलवायु –
उड़द के लिये नम एवं गर्म मौसम की आवश्यकता पड़ती है। उड़द की फसल की अधिकतर जातियाँ प्रकाशकाल के लिये संवेदी होती है। वृद्धि के लिये 25-30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त होता है। 700-900 मिमी वर्षा वाले क्षेत्रो मे उड़द को सफलता पूर्वक उगाया जाता है। फूल अवस्था पर अधिक वर्षा होना हानिकारक है। पकने की अवस्था पर वर्षा होने पर दाना खराब हो जाता है। जिले की जलवायु उड़द के लिये अति उत्तम है। उड़द की खरीफ एवं ग्रीष्म कालीन खेती की जा सकती है।
भूमि का चुनाव एवं तैयारी –
उड़द की खेती विभिन्न प्रकार की भूमि मे होती है। हल्की रेतीली, दोमट या मध्यम प्रकार की भूमि जिसमे पानी का निकास अच्छा हो उड़द के लिये अधिक उपयुक्त होती है। पी.एच. मान 7-8 के बीच वाली भूमि उड़द के लिये उपजाऊ होती है। अम्लीय व क्षारीय भूमि उपयुक्त नही है। वर्षा आरम्भ होने के बाद दो- तीन बार हल या बखर चलाकर खेत को समतल करे । वर्षा आरम्भ होने के पहले बोनी करने से पौधो की बढ़वार अच्छी होती है।
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उड़द का विपुल उत्पादन
उड़द की खेती
परिचय
मानसिक विकार पेट की बीमारियाँ तथा गठियावात जैसी बीमारियो को दूर करने की क्षमता होती उड़द एक महत्वपूर्ण दलहन फसल है। उड़द की खेती प्राचीन समय से होती आ रही है। हमारे धर्म ग्रंथो मे इसका कई स्थानो पर वर्णन पाया गया है। उड़द का उल्लेख कौटिल्य के “अर्थशास्त्र तथा चरक सहिंता” मे भी पाया गया है। वैज्ञानिक डी कॅडोल (1884) तथा वेवीलोन (1926) के अनुसार उड़द का उद्गम तथा विकास भारतीय उपमहाद्वीप मे ही हुआ है।
उड़द की फसल कम समयावधि मे पककर तैयार हो जाती है। इसकी फसल खरीफए रबी एवं ग्रीष्म मौसमो के लिये उपयुक्त फसल है। हमारे देश मे उड़द का उपयोग प्रमुख रूप से दाल के रूप मे किया जाता है। उड़द की दाल व्यंजन जैसे कचैड़ी, पापड़, बड़ी, बडे़, हलवा,इमरती,पूरी,इडली,डोसा आदि भी तैयार किये जाते है। इसकी दाल की भूसी पशु आहार के रूप मे उपयोग की जाती है। उड़द के हरे एवं सूखे पौधो से उत्तम पशु चारा प्राप्त होता है। उड़द दलहन फसल होने के कारण वायुमण्डल की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके भूमि की उर्वरा शक्ति मे वृद्धि करती है।
इसके अतिरिक्त उड़द को उगाने से खेत मे पत्तियाँ एवं जड़ रह जाने के कारण भूमि मे कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है। उड़द की फसल को हरी खाद के रूप मे उपयोग किया जा सकता है। उड़द के दानो मे औषधि गुण भी विद्यमान होते है। इसके दानो मे मधुमेहए शीघ्रपतन है।
उपयोगिता
पोषण मे योगदान –
भोजन का मुख्य अंग प्रोटीन होता है जो कि माँस,मछली,अण्डा एवं दूध से प्राप्त होता है। भारत की जनसंख्या का अधिकांश भाग शाकाहारी होने के कारण प्रोटीन की पूर्ति दालो से ही होती है। सभी दालो मे उड़द की दाल मे सबसे अधिक प्रोटीन होता है। अतः उड़द की दाल का भोजन में महत्वपूर्ण स्थान है। प्रोटीन के अतिरिक्त इसमे कई प्रकार के महत्वपूर्ण विटामिन एवं खनिज लवण भी पाये जाते है यह स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद होते है। उड़द की पोषक मूल्य सारणी -1 मे दिया गया है।
क्र0
घटक
मूल्य
खनिज लवण एवं विटामिन (100 ग्रा0 मे )
- नमी 10.9 कैल्शियम 154 मि.ग्र.
- प्रोटीन 24.0 फास्फोरस 385 मि.ग्रा.
- वसा 01.4 लोहा 09.1 मि.ग्रा.
- रेशा 00.9 विटामिन बी-1 0.42 मि.ग्रा.
- लवण 03.2 बी-2 0.37 मि.ग्रा.
- कार्बोहाइड्रेट 59.6 नियासिक 02.0 मि.ग्रा.
कैलोरीफिक मूल्य (कैलो. /100 ग्राम) -350
उत्पादन तकनीक
जलवायु –
उड़द के लिये नम एवं गर्म मौसम की आवश्यकता पड़ती है। उड़द की फसल की अधिकतर जातियाँ प्रकाशकाल के लिये संवेदी होती है। वृद्धि के लिये 25-30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त होता है। 700-900 मिमी वर्षा वाले क्षेत्रो मे उड़द को सफलता पूर्वक उगाया जाता है। फूल अवस्था पर अधिक वर्षा होना हानिकारक है। पकने की अवस्था पर वर्षा होने पर दाना खराब हो जाता है। जिले की जलवायु उड़द के लिये अति उत्तम है। उड़द की खरीफ एवं ग्रीष्म कालीन खेती की जा सकती है।
भूमि का चुनाव एवं तैयारी –
उड़द की खेती विभिन्न प्रकार की भूमि मे होती है। हल्की रेतीली, दोमट या मध्यम प्रकार की भूमि जिसमे पानी का निकास अच्छा हो उड़द के लिये अधिक उपयुक्त होती है। पी.एच. मान 7-8 के बीच वाली भूमि उड़द के लिये उपजाऊ होती है। अम्लीय व क्षारीय भूमि उपयुक्त नही है। वर्षा आरम्भ होने के बाद दो- तीन बार हल या बखर चलाकर खेत को समतल करे । वर्षा आरम्भ होने के पहले बोनी करने से पौधो की बढ़वार अच्छी होती है।
उड़द की उन्नत किस्में –
किस्म
पकने का दिन
औसत पैदावार(क्विंटल/हे.)
अन्य
टी-9 70-75 10-11 बीज मध्यम छोटा, हल्का काला,
पौधा मध्यम ऊँचाई वाला।
पंत यू-30 70, 10-12 दाने काले मध्यम आकार के,
पीला मौजेक क्षेत्रो के लिये उपयुक्त।
खरगोन-3 85-90 8-10 दाना बड़ा हल्का काला,
पौधा फैलने वाला जातियाँ
पी.डी.यू.-1(बसंत बहार) 70-80 12-14 दाना काला बड़ा,
ग्रीष्म के लिये उपयुक्त।
जवाहर उड़द-2 70 10-11 बीज मध्यम छोटा चमकीला काला,
तने पर ही फलियाँ पास-पास गुच्छो मे लगती है।
जवाहर उड़द-3 70-75 4-4.80
बीज मध्यम छोटा हल्का कालपौधा
मध्यम कम फैलने वाला।
टी.पी.यू.-4 70-75 4-4.80 पौधा मध्यम ऊँचाई का सीधा।
बीज की मात्रा एवं बीजउपचार –
उड़द का बीज6-8 किलो प्रति एकड़ की दर से बोना चाहिये। बुबाई के पूर्व बीज को 3 ग्राम थायरम या 2.5 ग्राम डायथेन एम-45 प्रति किलो बीज के मान से उपचारित करे। जैविक बीजोपचार के लिये ट्राइकोडर्मा फफूँद नाशक 5 से 6 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपयोग किया जाता है।
बोनी का समय एवं तरीका –
मानसून के आगमन पर या जून के अंतिम सप्ताह मे पर्याप्त वर्षा होने पर बुबाई करे । बोनी नाली या तिफन से करे, कतारों की दूरी 30 सेमी. तथा पौधो से पौधो की दूरी 10 सेमी. रखे तथा बीज 4-6 सेमी. की गहराई पर बोये।
खाद एवं उर्वरक की मात्रा –
नत्रजन 8-12 किलोग्राम व स्फुर 20-24 किलोग्राम पोटाश 10 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से दे। सम्पूर्ण खाद की मात्रा बुबाई की समय कतारो मे बीज के ठीक नीचे डालना चाहिये। दलहनी फसलो मे गंधक युक्त उर्वरक जैसे सिंगल सुपर फास्फेट, अमोनियम सल्फेट, जिप्सम आदि का उपयोग करना चाहिये। विशेषतः गंधक की कमी वाले क्षेत्र मे 8 किलो ग्राम गंधक प्रति एकड़ गंधक युक्त उर्वरको के माध्यम से दे।
सिंचाई-
क्रांतिक फूल एवं दाना भरने के समय खेत मे नमी न हो तो एक सिंचाई देना चाहिये।
निदाई-गुड़ाई –
खरपतवार फसलो की अनुमान से कही अधिक क्षति पहुँचाते है। अतः विपुल उत्पादन के लिये समय पर निदाई-गुड़ाई कुल्पा व डोरा आदि चलाते हुये अन्य आधुनिक नींदानाशक का समुचित उपयोग करना चाहिये। नींदानाशक वासालिन 800 मिली. से 1000 मिली. प्रति एकड़ 250 लीटर पानी मे घोल बनाकर जमीन बखरने के पूर्व नमी युक्त खेत मे छिड़कने से अच्छे परिणाम मिलते है।
उड़द में एकीकृत नाशी कीट प्रबंधन
क्ली वीटिक (पिस्सू भृंग)-
यह उड़द तथा मूंग का एक प्रमुख हानिकारक कीट है। इस कीट के भृंग तथा प्रौढ़ दोनों ही हानिकारक अवस्थायें है। भृंग रात्रि में सक्रिय रहकर पत्तियों पर छेद बनाकर क्षति पहुँचाते हैं। अधिक प्रकोप की स्थिति में 200 से अधिक छेद एक पत्ती पर पाए जा सकते हैं गर्मियों में बोई जाने वाली उड़द, मूंग को इस कीट से ज्यादा हानि देखी गई है। इस का भृंग (ग्रव) भूमिगत रहकर उड़द, मूंग तथा ग्वार आदि फसलों में जड़ों एवं तनों को क्षति पहुंचाते हैं। भृंग मुख्यतः उड़द की जड़ों में छेदकर घुस जाते हैं व खाकर ग्रंथियों को नष्ट करते हैं। जिससे 25 से 60 प्रतिशत तक गांठे प्रति पौधा नष्ट कर दी जाती है। इस प्रकार पौधों की नत्रजन स्थरीकरण की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे उत्पादन में अत्यधिक कमी आती है। प्रौढ़ भृंग भूरे रंग के धारीदार होते हैं जबकि भृंग (ग्रव) मटमैले सफेद रंग के भूमिगत होते हैं।
पत्ती मोड़क कीट (इल्ली)-
प्रौढ़ कीट के पंख पीले रंग के होते हैं। इल्लियां हरे रंग की तथा सिर पीले रंग का होता है। इस कीट की इल्लियाँ ही प्रमुख रूप से हानि पहुँचाती हैं। इल्लियां पत्तियों को ऊपरी सिरे से मध्य भाग की ओर मोड़ती है। यही इल्लियां कई पत्तियों को चिपका कर जाला भी बनाती है। इल्लियां इन्हीं मुड़े भागों के अन्दर रहकर पत्तियों के हरे पदार्थ (क्लोरोफिल) को खा जाती हैं जिससे पत्तियां पीली सफेद पड़ने लगती है। कभी कभी क्षति प्रकोप अधिक होने पर पत्तियों की शिरायें ही बाकी रह जाती हैं।
सफेद मक्खी-
इस कीट के प्रौढ़ एवं शिशु दोनों ही हानिकारक अवस्थाएं हैं। ये हल्का पीलापन लिए हुए सफेद रंग के होते हैं। शिशु पंखहीन होते हैं जबकि प्रौढ़ पंखयुक्त होते हैं। दोनों ही पत्तियों की निचली सतह पर रहकर रस चूसते रहते हैं जिससे पौधे कमजोर होकर सूखने लगते हैं। यह कीट अपनी लार से विषाणु पौधों पर पहॅंचाता है एवं ‘‘यलो मौजेक’’ नामक बीमारी फैलाने का कार्य करते हैं। यही कारण है कि यह एक अत्यन्त हानिकारक कीट सिद्ध होते हैं।पीले मोजेक का नियत्रंण रोग शुरु होते ही प्रारम्भ होते ही कर देना चाहिये । पीले रोग ग्रस्त पौधो को उखाड़ कर नस्ट कर दे तथा फसल को डायमेथोएट 30ई.सी. 2मिली./ली. पानी के साथ घोल कर छिडकाव करे यह विषाणु ‘‘पीला मौजेक’’ का प्रभावी उपचार है। अतः केवल स्वस्थ्य पौधों को इस की द्वारा प्रकोप से बचाकर ही इस बीमारी की रोकथाम की मध्य प्रदेश में उड़द-मूंग को सर्वाधिक क्षति सफेद मक्खी द्वारा जनित ‘‘यलो मौजेक’’ रोग से ही होती है। यहाँ तक की कम संख्या में भी यह कीट अत्यन्त हानिकारक है। सफेद मक्खी द्वारा इस फसल में 10 से 40 प्रतिशत तक उपज में कमी दर्ज की गई है।
पत्तियां भेदक इल्लियां-
विभिन्न प्रकार की इल्लियां उड़द व मूंग की पत्तियों को क्षति पहुंचाकर उपज पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। इसमें बिहार रोमिल इल्ली, लाल रोमिल इल्ली, तम्बाकू, इल्ली अर्द्ध गोलाकार (सेमीलूक) इल्ली आदि पत्ती भक्षक इल्लियां हानि पहुँचाती है। इस दशक में बिहार रोमिल इल्ली प्रमुख रूप से क्षति कारक है।
बिहार रोमिल इल्ली-
इस कीट का प्रौढ़ मध्यम आकार का तथा प्रौढ़ के पंख भूरे पीले रंग के होते हैं। प्रौढ़ पंख में किनारे लाल रंग के एवं अग्र पंख जोड़ों पर काले धब्बे होते है। इल्लियां छोटी अवस्था में झुण्ड में रहकर पत्तियों को खाती हैं जिससे पत्ती पर जाला नुमा आकृति बन जाती है। बड़ी इल्लियाँ फसल में फैलकर पत्तियों में अत्यधिक क्षति पहुँचाती है। इनके शरीर पर घने बाल या रोय होते हैं। जिस कारण इन्हें ‘‘कंबल कीट’’ भी कहा जाता है। अत्यधिक प्रकोप की स्थिति में पौधे पत्ती विहीन होकर केवल ढांचे के रूप में रह जाते हैं। इनके प्रकोप से पौधे में दाने छोटे व उपज कम हो जाती है।
रासायनिक कीटनाशकों में उपयोग हेतु सुझाव
- कीटनाशी रसायन का घोल बनाते समय उसमें स्टीकर (चिपचिपा) पदार्थ जरूर मिलाएं ताकि वर्षा जल से कीटनाशक पत्ती व पौधे पर से घुलकर न बहें।
- धूल (डस्ट) कीट नाशकों का भुरकाव सदैव सुबह के समय करें।
- दो या अधिक कीटनाशकों का व्यापारिक सलाह पर मिश्रण न करें। कीटों में प्रतिरोधकता रोकने हेतु सदैव हर मौसम में कीटनाशक बदल-बदल कर उपयोग करें।
- कीट नाशक का घोल सदैव पहले डबले या मग्गे में बनाएं उसके बाद उसे स्प्रेयर की टंकी में पानी के साथ मिलाएं। कभी भी टंकी में कीटनाशक न डालें।
