देश के लगभग सभी हिस्सों में रबी, खरीफ और जायद, तीनों मौसम में पालक की खेती (Spinach farming) की जा सकती है. इसकी खेती हल्की दोमट मिट्टी में आसानी से की जा सकती है. इसके लिए जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए, साथ ही सिंचाई के लिए भी पानी की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए. अगर किसान आधुनिक तरीके से पालक की खेती करें, तो बहुत अच्छा मुनाफ़ा कमा सकते हैं. आज हम अपने किसान भाईयों को पालक की उन्नत क़िस्मों और उनकी खासियत बताने जा रहे हैं.
पालक की उन्नत किस्में
इसकी खेती से अधिकत उत्पादन के लिए अपने क्षेत्र और जलवायु की अनुसार किस्मों का चुनाव करना चाहिए. किसान अलग-अलग क्षेत्रों में देसी और विलायती, दो प्रकार की पालक उगाते हैं.
देसी पालक- इसकी पत्तियां चिकनी अंडाकार, छोटी और सीधी होती हैं, तो वहीं विलायती पालक की पत्तियों के सिरे कटे हुए पाए जाते हैं. इसकी दो किस्में हैं, एक लाल शिरा वाली और दूसरी हरा सिरे वाली. इसमें हरे सिरे वाली को किसानों द्वारा ज्यादा पंसद किया जाता है.आल ग्रीन- इस किस्म के पौधे एक समान हरे, पत्ते मुलायम और पत्ते 15 से 20 दिन के अन्तराल पर कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं तथा 6 से 7 कटाई आसानी से की जा सकती है. यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है और इसमें सर्दी के दिनों में करीब ढाई महीने बाद बीज व डंठल आते है.
पूसा हरित- पालक की यह किस्म पहाड़ी इलाकों में पूरे
साल उगाई जा सकती है. इसके पौधे ऊपर की तरफ बढ़ते हैं, जिसकी पत्तियां गहरे हरे रंग और बड़ी आकार की होती हैं. इस किस्म को कई तरह की जलवायु और क्षारीय भूमि में उगाया जा सकता है.
विलायती पालक- यह किस्म कटीले बीज वाली और गोल बीज वाली होती है. कटीले बीज की बुवाई पहाड़ी और ठंडे क्षेत्रों में की जा सकती है, जबकि गोल बीज वाली किस्म की बुवाई मैदानी क्षेत्रों में की जाती है.
पूसा ज्योति- यह पालक की एक प्रभावी किस्म है. इसकी पत्तियां काफी मुलायम, रसीली और बिना रेशे वाली होती हैं. इसके पौधे काफी बढ़ने वाले होते है, इसलिए कटाई कम अंतराल पर कर सकते हैं.
बनर्जी जाइंट- इस किस्म के पत्ते काफी बड़े, मोटे और मुलायम होते है, साथ ही तने और जड़ें भी मुलायम ही पाए जाते हैं.
जोबनेर ग्रीन- पालक की इस किस्म की बुवाई करने पर सभी पत्ते एक समान हरे, बड़े, मोटे, रसीले और मुलायम होते हैं. जब पत्ती पक जाती है, तो आसानी से गल जाती है. इस किस्म की बुवाई क्षारीय भूमि में की जा सकती है.
